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श्रीउपदे
शपदे
॥३२७॥
संवेगसारमुल्लवइ । साहु सुभणियं सुंदरि! नायं तत्तं मएदाणिं ॥५२॥ मोहंधस्स तए मम विवेगचक्खू सुनिम्मलं दिन्नं ।
* बुद्धि-ऋनरयागडे पडतो झडत्ति धरिओ अहं तुमए ॥ ५३॥ भण किं करेमि इण्हिं तुज्झ पियं सुयणु ! मंदभग्गो हं। तीए
द्धिसुन्दरीभणियं गिण्हसु विणिवत्तिं परकलत्तस्स ॥५४॥ तो हरिसपुलइयंगो चकोइव दिट्ठउग्गयपयंगो । विरओ परदाराओ राया
चरितेकयधम्मगुणराओ॥ ५५ ॥ भो साहु साहु सुपुरिस! मुणियं तत्तं ऊरीकयं सत्तं । नय मयलिओ सवंसो इय सुंदरीए
कयपसंसो ॥५६॥ खामिय पुणो पुणो तं पूयइ सकारियं विसज्जेइ । मंतिस्स य सपसाओ राया पुचिव संजाओ॥५७॥ है एवं अकरणनियमो अकलंको पालिओ इमीएवि । जिणसासणसरसिरुहं सेसंव सिरे धरतीए ॥५८॥
• अह तामलित्तिउत्तमचित्तंगयणेगमंगओ धम्मो। वाणिजकए सागेयमागओ मुणियजिणधम्मो ॥१॥ तेण य कयाइ | विवणिट्ठिएण किर रिद्धिसुंदरी दिट्ठा । सहसा सहीहिं सहिया वच्चंती रायमग्गेण ॥२॥ परिचिंतियं च ताहे अहो असाहै रेवि एत्थ संसारे । एसा सारंगच्छी सारायंतिव पडिहाइ ॥३॥ जइ कीरइ गिहवासो आसाबंधो य विसयसुहलेसे । ता *
सह इमीए जुत्तो इहरा उ विडंबणा चेव ॥४॥ इयचिंतिरस्स अहियं वच्चइ तहियं पुणो पुणो तस्स । वारेंतस्सवि बला 8 दिट्ठी गिट्ठिव जवसम्मि ॥५॥ एत्थंतरम्मि देवा कुऊहलालोयवाउलमणाए । तीएवि लोयणाई सहसच्चिय तम्मि पत्ताई
॥६॥ तं पेच्छिउकामाए तत्तो उदिस्स सहियणं भणियं । एसो हला! नवल्लो दीसइ वाणुंजुओ कोवि ॥७॥ मुणियमणोभावाए भणियं एगाए ईसि हसिऊण । सच्चं एस नवल्लो दीसइ सहि! तिलमओ जेण ॥८॥ अन्नाए संलत्तं सहि! एसो निउणकरिसगो कोइ । जो उप्पायइ खिलवल्लरेसु सहसा तिले विउले ॥९॥ अन्नावि आह मुद्धे! णणु एसो पस्स