________________
श्रीउपदेशपदे
॥ २५९ ॥
च्छंतों ॥ १३ ॥ महिसी सहिओ चारणसाहुं गयणंगणाओ ओइन्नं । अवलंवियवाहुजुयं काउस्सग्गे ठियं संतं ॥ १४ ॥ दूरनिरावणतणुं पेच्छइ तो तम्मिलग्गबहुमाणो । तग्गुणसंभरणाए तं रयणि कहवि वोलेई ॥ १५ ॥ संपत्ते पञ्चसे समूसुगो जाव तत्थ सो जाइ । ता सूरुग्गमसमओवियंभिओ भिन्नतिमिरभरो ॥ १६ ॥ उस्सारियभुयजुयलो नमो अरिहंताणमिइ भणेऊण । सो साहू गयणयले उप्पण्णो तक्खणच्चैव ॥ १७ ॥ उप्पयमाणो दिट्ठो तेण सो निसुणिओ नमोक्कारो | तो जायसहाणो अहन्निसं तं चिय पढेइ ॥ १८ ॥ अह सेट्टिणा कयाई जहा कहंची पढंतयं दहुँ । पडिसिद्धो जह एवं पढिज्जमाणे धुवं दोसो ॥ १९ ॥ पडिभणियं तेण जहा एवं पयमंतरेण सक्केमि । ण खर्णपि ठाउमिय भासियम्म सेट्ठी विचिंतेइ ॥ २० ॥ आसण्णसिद्धिलाभो कोइ इमो जस्स एरिसी भत्ती । एयम्मि ता समग्गो दिज्जउ एसो नमोकारो ॥ २१ ॥ जिणपडिमा पञ्चक्खं सुमुहुत्ते दिन्नओ तओ भणिओ। जह सोम ! सुद्धसमाए सययं परिभावणिज्जोत्ति ॥ २२ ॥ अह अन्नया पवत्ते वासारत्ते गहित्तु महिसीओ । पत्तो नईसमीवे पारद्धा चारिडं ताओ ॥ २३ ॥ परतीरगयाओ खेत्तियस्स अन्नरस खेत्तभूमीओ । लग्गा चरिडं अइवरिसणेण जाया नई सुभरा ॥ २४ ॥ सामिडवालभभया तासिं महिसीण रक्खणनिमित्तं । दिन्ना नईए झंपा भिन्नो उयरम्मि कीलेण ॥ २५ ॥ इह लोए आरोग्गं अभिरु इयनि फत्ती अत्थकामाण । सिद्धीय, सग्गसुकुले पच्चायाई य परलोए ॥ २६ ॥ जस्सेरिसा गुणा वित्थरंति तं भावओ अणुसरंतो | पंचनमोक्कारमईवगोयराकालमणुपत्तो ॥ २७ ॥ तस्सेव सेट्टिणो भारियाए गन्भम्मि अन्भुयन्भूओ । उववन्नो सो जलनिहिमुत्तिपुडे मोत्तियमणि ॥ २८ ॥ तस्साणुभावओ किंचिदंगमणघत्तणं पवज्जेइ । वयणांभोरुहयं पंडुरं च
चतुर्थोदाहरणेद्वितीयज्ञातम् -
।। २५९ ॥