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गरवद्राणं ॥ ४२ ॥ जो पुण तओ वि अन्नो रोहिणिवयव वुडिमाणेइ। पंच वि वयाइं जायइ संघपहाणो गणधरो या ॥ ४३ ॥ अन्नोवि इओ दीसइ ववहारे उवणओ इहं नाए। जह किल कस्सइ गुरुणो सीसा चत्तारि निप्पण्णा॥४४॥
आयरियत्तणजोगा पज्जाएणं सुएण य समिद्वा । तो चिंतिउंपवत्तो एस समप्पेमि कस्स गणं ॥४५॥ पुवं ताव परिच्छं ठाकरेमि देसंतरे विहाराय । उचियपरिवारसारा विसज्जिया कस्स का सिद्धी ॥ ४६॥ इह होइ, तेवि य गया खेमाइगु
गणिएमु देमेसु । जो तत्थ सबजेट्ठो मायावहुलो कडुयवयणो ॥४७॥ एगंताणुवगारी निवेयं तिवमेवमाणीओ। सबो परिवारो जह अचिरा तस्सुज्झगो जाओ॥४८॥ वीओ वि सायवहुलत्तणेण णियदेहसंठियं चेव । कारेइ सादरं सीस
रेयं ॥४९॥ तइओ पुण सारणवारणाइकरणेण निच्चमुजुत्तो। रक्खइ पमत्तभावं गच्छंतं तं परीवारं ॥५०॥ जो पुण चउत्थगो सो सयलधरामंडलोवलद्धजसो । जिणसमयामयमेहो दुक्करसामन्ननिरओ य ॥५१॥
ओश्नदेवलोगं व भूरिसंतोसपोसमणुपत्तं । निययविहारमहीयलमुवजणयंतो नियगुणेहिं ॥५२॥ देसण्णू कालण्णू परका चित्तण्णू जहेब कालाओ। जाओ पभूयपरिवारपरिगओ विहियजणबोहो ॥५३॥ पत्ता गुरुणो पासे उवलद्धो तेण दि तेमि वुत्तंतो। तो निययगच्छमेलणपुवो दिन्नो य अहिगारो ॥५४॥ सच्चित्तमचित्तं वा जं गच्छे छड्डणारिहं किंचि ।
पढमेण परिठ्ठावणमिमस्स कजं त्ति संठवियं ॥ ५५ ॥ जं भत्तं जं पाणं उवगरणं वा गणस्स पाउग्गं । तं दुइएणापरितंतपण उप्पाइयति ॥ ५६ ॥ उप्पन्नस्स गिलाणसेहाइयाण य मुणीण । रक्खादक्खवियक्खणजोगा तइयम्मि संठविया ।। ५७ ॥ जो पुण तेसिं कणिट्ठो गुरुभाया तस्स नियगणो सबो । वहपणयपरायणमाणसेण गुरुणा समुवणीओ ॥५८॥