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पूज्यपाद श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिकृत
द्रव्यसंग्रह की प्रश्नोत्तरी टीका
मंगलाचरण जीवमजीव दव्व जिणवरवसहेण जेण सिद्दिठं ।
देविंदविंदवदं वंदे त सव्वदा सिरसा ॥१॥ अन्वय-जेण जिणवरवसहेण जीवमजीव दव्वं णिद्दिट्ठ देविदविदवद तं सव्वदा सिरसा वंदे ।
अर्थ-जिन जिनवरवृषभ (तीर्थंकरदेव) ने जीव व अजीव द्रव्यका निर्देश किया है, देवेन्द्रोंके समूह द्वारा वंदनीय उन प्रभुको सदा सिर नमाकर वंदन करता हूँ।
प्रश्न १-जिन्हे वंदन किया है उनको जीव अजीव द्रव्यके निर्देष्टा-इस विशेषणसे कहनेका क्या कोई विशेष प्रयोजन है ?
उत्तर-यह विशेषण ग्रन्थनामसे सम्बन्ध रखता है । इस ग्रन्थमे द्रव्योका वर्णन करना है अत. द्रव्यके निर्देष्टाको वदित किया है।
प्रश्न २-इस विशेषणसे क्या कुछ ग्रन्थकी भी विशेषता होती है ?
उत्तर-जिन द्रव्योका वर्णन इस ग्रन्थमे करना है उन द्रव्योका निर्देष्टा निर्दोष प्राप्त बतलानेसे ग्रन्थकी प्रामाणिकता सिद्ध होती है ।
प्रश्न ३-द्रव्यूके नामके लिये यहाँ “जीव अजीव" इतने शब्दोसे क्यो कहा? .
उत्तर-जीव व अजीवके परिज्ञान बिना स्वभावकी प्राप्ति असम्भव है अतः निजके स्वभाव जाननेके प्रयोजनको जीव शब्दसे बताया है व अन्य जिन सबोसे लक्ष्य हटाना है उनको अजीव शब्दसे कहा है।
प्रश्न ४ - मूर्त और अमूर्त-इस प्रकार भी तो द्रव्यके दो प्रकार है, तब "मुत्तममुत्तं दव्व" इस प्रकार क्यो नही कहा गया ?
उत्तर-मूर्त अमूर्त कहनेपर अमूर्त आत्मा मूर्तसे तो पृथक् हो गया, किन्तु अमूर्त अन्य