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________________ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका - इसलिए असद्भूत कर्तृत्व है तथा भिन्न पदार्थोका कर्तृत्व देखा जा रहा है, अतः व्यवहार है। प्रश्न ४---घट-पट आदिका कर्ता प्रात्मा किस नयसे है लोला उत्तर-आत्मा घट-पट आदिका कर्ता उपचरित असदुद्भत व्यवहारनयसे है। ये पदार्थ भिन्न क्षेत्रमे है और वाहसम्बंधसे भी पृथक् है । हाँ, प्रात्माकी चेष्टाके निमित्त और निमित्तके निमित्त, उपनिमित्तोका निमित्त पाकर घट-पट प्रादि निमित्त हो जाते है, इसलिये इन बाह्य पदार्थोंका कर्तृत्व उपचरित है । भिन्न पदार्थ है, सो इनका कर्तृत्व असभूत है । पृथक् द्रव्योमे कर्तृत्व बताया जा रहा है, इसलिये व्यवहार है। प्रश्न ५-जब ये पदार्थ भिन्न है तब इनके प्रति ऐसा भी कर्तृत्व क्यो बन गया? उत्तर- आत्मा निज शुद्ध पात्मतत्त्वको भावनासे रहित होकर ही इन बाह्य पदार्थों का कर्ता बन जाता है। प्रश्न ६- पुद्गल कर्म क्या वस्तु है ? उत्तर- जगत्मे अनन्तानन्त कार्माणवर्गणायें है और प्रत्येक ससारी जीवके साथ । विनसोपचयके रूपमे अनन्त कार्माणवर्गणायें लगी हुई है। कार्माणवर्गणाका अर्थ है कर्मरूप बनने योग्य सूक्ष्म पुद्गल स्कए । ये ही कार्माणवर्गणायें कमरूप परिणत हो जाते है, जब ) जीव कपायभाव करता है। प्रश्न ७-~-जीवका कर्मके साथ तो गहरा सम्बन्ध है, फिर जीवको कर्मका असद्भूत व्यवहारनयसे कर्ता क्यो कहा गया है ? उत्तर-जीवका कर्ममे अत्यन्ताभाव है। तीन कालमे भी जीवका द्रव्य, प्रदेश, गुण और पर्याय कर्ममे नही जा सकता और कर्मके द्रव्य प्रदेश, गुण और पर्याय जीवमे नही जा सकते । हां, सहज निमित्तनैमित्तिक बातं ही ऐसी हो जाती है कि जीव जब अपने कषायपरिणमनसे परिणमता है तो कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती है तो भी अत्यन्ताभावके कारण असद्भुतपना ही ठीक है । प्रश्न ८-- चेतन कर्मोंका जीव किस नयसे कर्ता है ? "उत्तर- जीव अशुद्धनिश्चयनयसे चेतनकर्मोका कर्ता है। प्रश्न ६-- चेतनकर्म तो जीवको परिणति है, फिर उसका कर्ता जीव अशुद्धनयसे क्यो है ? उत्तर-चेतनकर्मका तात्पर्य है पुद्गल कर्म उपाधिको निमित्त पाकर रागादि विभाव रूप परिणमने वाला जीवका विभावपरिणमन । (ये रागादिभाव जीवमे स्वयं अर्थात् स्वभाव के निमित्तसे नही होते, परद्रव्यके निमित्तसे होते है, अतएव ये क्षणिक और विपरीत भाव याने अशुद्ध भाव है, किन्तु है ये जीवकी ही पर्याय) इसी कारण जीव इन चेतनकर्मोका
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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