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________________ गाथा ८ चाहिये। उत्तर- ससार अवस्थामे यह जीव कथचित् मूर्त है और कथचित् अमूर्त है । बन्धके प्रति एकत्व होनेसे यह व्यवहारनयसे मूर्त है और अपने स्वरूपसे प्रमूर्त है । निश्चयसे आत्मा चैतन्यमात्र है, इसमे वर्ण, रस, गन्ध व स्पर्श नही है, इसलिये अमूर्त है। प्रश्न २५- प्रात्मा कथचित् मूर्त व अमूर्त है ऐसा जानकर हमे क्या करना चाहिये ? ___ उत्तर-- इस अमूर्तस्वरूप आत्माकी दृष्टि उपलब्धिके न होनेसे यह आत्मा मूर्त बनकर चतुर्गतिके दु ग्वोको भोगता है । अत मूर्त विषयोका त्याग करके, पर्यायबुद्धिको छोडकर शुद्धचैतन्यस्वभावमात्र अमूर्त आत्माका ध्यान करना चाहिये ।। इस प्रकार "जीव अमूर्त है" इस अर्थके व्याख्यानका अधिकार समाप्त करके "जीव कर्ता है" इसका वर्णन करते है पुग्गलकम्मादीण कत्ता ववहारदो दुणिन्चयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।।६।। अन्वय-प्रादा ववहारदो पुग्गल कम्मादीण कत्ता, दुरिगच्चयदो दणकम्माण कत्ता । सुद्धगया सुद्धभावारण कत्ता। अर्थ-- आत्मा व्यवहारनयसे पुद्गलकर्मादिका कर्ता है, परन्तु निश्चयनयसे चेतनकर्म का कर्ता है और शुद्धनयकी अपेक्षा शुद्ध भावोका कर्ता है । प्रश्न १-पुद्गलकर्म आदिमे आदि शब्दसे और किन-किनका ग्रहण करना चाहिये ? उत्तर- आदि शब्दसे ओदारिक, वैक्रियक, आहारक--इन तीन शरीरके योग्य नोकर्म और आहारादि ६ पर्याप्तियोके योग्य नोकर्म रूप पुद्गलका ग्रहण करना तथा घट, पट, मकान श्रादि बाह्य पदार्थोका ग्रहण करना। आहार - शरीर - इन्द्रिय - स्याच्छायात, भाषा - मन प्रश्न २–प्रात्मा पुद्गल कर्मका का किस व्यवहारनयसे है PAAAA उत्तर-~प्रात्मा ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्मोका कर्ता अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे है । ज्ञानावरणादि कर्मोका अात्माके साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बध है और जब तक सम्बध है तब तक जहाँ आत्माको गति हो वही उनकी गति है प्रादि । प्रात्मा जब कषायभाव करता है तब ये कर्मरूप परिणमते ही है। इन कारणोसे यह कर्तृत्व अनुपचरित है । कर्म भिन्न पदार्थ है, अतः असद्भूत है । भिन्न पदार्थ के प्रति कर्तृत्व देखा जा रहा है सो व्यवहार है। प्रश्न ३- शरीर और पर्याप्तिके योग्य पुद्गलोका कर्ता प्रात्मा किस नयसे है ?' उत्तर-शरीरादिका भी कर्ता आत्मा अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे है। ये पुद्गल भी आत्माके एकक्षेत्रावगाहमे है और जब तक इनका आत्मासे सम्बन्ध है तब तक माकी गति प्राटिके साथ इनकी गति आदि है, अतः अनुपचारित कर्तृत्व है, भिन्न पदार्थ है, - -
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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