SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ कहा ? द्रव्यसंग्रह - प्रश्नोत्तरी टीका प्रश्न १४ – निश्चय रत्नत्रयको निश्चयरूप तीनोको न कहकर एक ग्रात्माको ही क्यो उत्तर - निश्चयनय अभेदको ग्रहण करता है, प्रत. निश्चयरत्नत्रय एक अभेद शुद्ध पर्यायपरिणत श्रात्मा ही है । अब इस ही १४वे प्रश्न उत्तरसे सम्बन्धित विषयको स्पष्ट समझने के लिये ४०वी गाथा कहते है । अप्पारण मुत्तु प्रणादवियह्नि । रणत्तय ण वह तम्हा तत्तियम होदि हु मोक्खस्स कारण आदा ||४०|| अन्वय- अप्पारण मुत्तु अण्णदवियरियरणत्तय रण वद्दड । तम्हा हु तत्तियमइओ श्रादा मोक्खस्स कारणं होदि । अर्थ - श्रात्माको छोडकर अन्य द्रव्यमे रत्नत्रय नही रहता है । इस कारण से रत्न - त्रयात्मक ग्रात्मा ही निश्चयसे मोक्षका कारण है । प्रश्न १- रत्नत्रय ग्रन्य द्रव्यमे क्यो नही रह सकता ? उत्तर - रत्नत्रय याने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीनो पर्यायें है । ये जिस गुणकी पर्यायें है वे गुरण जिसमे रहते है उसीमे रत्नत्रय है प्रश्न २ - सम्यग्दर्शन श्रात्मा के सम्यक्त्व गुरणकी पर्याय है । सम्यक्त्व एक निर्मल पर्यायका भी नाम है व सम्यक्त्व गुणका भी नाम है । प्राचीन परम्परा मे इसी प्रकार वर्णन है । सम्यक्त्व गुणका पर्यायवाची श्रद्धागुण भी है । प्रश्न ३ - सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के क्या कारण है ? उत्तर - सम्यग्दर्शनका उपादान कारण सम्यग्दर्शनके पूर्वकी पर्यायसे परिणत व इस प्रकारकी विशिष्ट योग्यता वाला श्रात्मा है । अन्तरग निमित्त कारण दर्शनमोह व अनतानुबन्धी कषायका उपशम, क्षयोपशम या क्षय है । बाह्य निमित्त कारण जिन सूत्रका उपदेश है । उपचरित बाह्य कारण जिन सूत्रके जानने वाले वे पुरुष है जिनसे यथार्थं उपदेश प्राप्त होता है तथा जिनबिम्बके दर्शन, तपस्वी, ध्यानी साधुवोके दर्शन श्रादि है । प्रश्न ४-- सम्यग्ज्ञान किस गुरगकी पर्याय है ? उत्तर - सम्यग्ज्ञान आत्माके ज्ञान गुणकी पर्याय है। ज्ञान पर्याय अपने स्वरूपसे न सम्यक है और न मिथ्या है, किन्तु दर्शनमोहके उदयके निमित्तसे होने वाले विपरीत अभिप्राय के सम्बन्धसे ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है तथा दर्शनमोहके उपशम, क्षयोपशम या क्षयके निमित्तसे होने वाली सम्यक् प्रतीतिके सम्बन्धसे ज्ञान भी सम्यक् कहलाता है । प्रश्न ५ - सम्यक्चारित्र किस गुणकी पर्याय है ? उत्तर - सम्यक् चारित्र श्रात्माके चारित्रगुरणकी पर्याय है ।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy