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________________ गाथा ३६ २२३ उत्तर - जो पदार्थ जिस रूपरो अवस्थित है उसे उस प्रकारसे जाननेको व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते है | प्रश्न ६-- निश्चयसम्यग्ज्ञान किसे कहते है ? उत्तर-- शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न सहज श्रानन्दसे तृप्त होते हुये अपने द्वारा अपना निर्विकल्परूपसे सवेदन करनेको निश्चयसम्यग्ज्ञान कहते है | प्रश्न ७ - व्यवहारसम्यक्चारित्र किसे कहते है ? उत्तर-- जिससे अशुभ भावसे निमित्त व शुभभाव मे प्रवृत्ति हो ऐसे तप, व्रत, समिति गुप्ति, श्रादिके पालन करनेको व्यवहारसम्यक् चारित्र कहते है । प्रश्न ८- निश्चयसम्यक् चारित्र किसे कहते है ? उत्तर-- रागादि विकल्पोके परिहारपूर्वक रागद्वेषादि विभावशून्य शुद्ध चैतन्य तत्त्व के उपयोगकी स्थिरताको निश्चयसम्यक् चारित्र कहते है । प्रश्न - यो व्यवहाररत्नत्रय के पाये बिना निश्चयरत्नत्रय नही हो सकता ? उत्तर - निश्चयरत्नत्रय के पूर्व व्यवहाररत्नत्रय होता ही है । व्यवहाररत्नत्रय पाये बिना निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति नही होती । इसी कारण व्यवहाररत्नत्रय साधक है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है । प्रश्न १०-- क्या व्यवहाररत्नत्रय द्वारा निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति श्रवश्य होती है ? उत्तर-- यदि व्यवहार रत्नत्रयको पालता हुआ उस व्यवहारमे ही अपनी एकता जोडे तो निश्चयरत्नत्रय नही हो सकता । यदि व्यवहाररत्नत्रयके पालन द्वारा विपयकषायसे निवृत्ति पाकर निज ज्ञायकस्वभावसे अपनी एकता जोडे तो निश्चयरत्नत्रय अवश्य होता है । प्रश्न ११ – निश्चय रत्नत्रय व व्यवहाररत्नत्रय दोनो क्या एक साथ रह सकते है ? उत्तर - निश्चय व व्यवहाररूप दोनो रत्नत्रय एक साथ रह सकते है । प्रश्न १२ - तत्र तो व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रय के साथ रहे, उसे ही व्यवहार - रत्नत्रय कहना चाहिये ? उत्तर - जो व्यवहाररत्नत्रय निश्चय रत्नत्रय के साथ रह सकता है वह तो फलित व्यवहाररत्नत्रय हे और जो निश्चयरत्नत्रयके पहिले व्यवहाररत्नत्रय रहता है वह निमित्त व्यवहाररत्नत्रय है | प्रश्न १३ – क्या व्यवहाररत्नत्रयके बिना भी निश्चयरत्नत्रय रह सकता है ? उत्तर - निर्विकल्प चारित्र वाले उच्च गुणस्थानोमे उक्त व्यवहाररत्नत्रयके विना निश्चयरत्नत्रय रह सकता है । यही अभेदरत्नत्रय सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र गुणकी परिपति होनेसे व्यवहार कहलाता है ।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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