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________________ गागा ३५ २०७ और इसको सस्थानका विचय होनेसे सस्थानविचय नामका उत्कृष्ट धर्मध्यान होता है । प्रश्न २५८ --बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर- निज शुद्ध आत्मतत्त्वका श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप बोधिका पाना अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्राप्त हो रही बोधिकी वृद्धि और दृढता करना चाहिये, ऐसे चिन्तवन करने और समाधिकी और उन्मुख होनेको बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते है। प्रश्न २५६-बोधि अत्यन्त दुर्लभ कैसे है ? उत्तर- इस जीवने अनादिकालमे तो एकेन्द्रिय (साधारणवनस्पति) मे ही रहकर अनन्त काल व्यतीत किया, उसके पश्चात् सुयोग हुआ तो उत्तरोत्तर दुर्लभ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असज्ञी पचेन्द्रिय, संज्ञी पचेन्द्रिय, पर्याप्त, सज्ञी, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, इन्द्रियोका सामर्थ्य, दीर्घायु, प्रतिभा, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण, धर्मश्रद्धान, विपयमुखोकी निवृत्ति, कपायोको निवृत्ति व रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है । अतः आत्मश्रद्धान, प्रात्मज्ञान व आत्माचरण रूप बोधिदुर्लभ है। प्रश्न २६०- इस जीवने निम्न दशाप्रोमे रहकर अनन्त परिवर्तन क्यो किये ? उत्तर- मिथ्यात्व, विषयासक्ति, कषाय आदि परिणामोके कारण इस जीवकी निम्न दशा हुई। प्रश्न २६१-बोधि प्राप्त करके यदि प्रमाद रहा तो क्या हानि होगी ? उत्तर-अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रयरूप बोधिको पाकर यदि प्रमाद किया तो संसाररूपी भयानक बनमे दीन होकर चिरकाल तक भ्रमणकर दुःख भोगना पड़ेगा। प्रश्न २६२-बोधि और समाधिमे क्या अन्तर है ? उत्तर-जिस जीवके सम्यग्दर्शन नही है उस जीवको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी प्राप्ति होना सो तो बोधि है और रत्नत्रय बनाये रहना, वृद्धि करना तथा भवान्तरमे ले जाना सो समाधि है । निर्वाण प्राप्त कर लेना यह परमसमाधि है। प्रश्न २६३-धर्मानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर-धर्मके बिना ही यह जीव सहजसुखसे दूर रह कर इन्द्रियाभिलापाजनित दु.खोको सहता हुमा ८४ लाख योनियोमे भ्रमण करता हुआ चला आया है । जब इस जीव को धर्मका शरण हो जाता है तब राजाधिराज चक्रवर्ती देवेन्द्र जैसे उत्कृष्ट पदोके सुग्व, भोगा कर अभेद रत्नत्रयभावनारूप परमधर्मके प्रसादसे अरहन्त होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होत है । इत्यादि धर्मको उत्कृष्टताके चिन्तवन करने और धर्माचरणको धर्मानुप्रेक्षा कहते है। प्रश्न २६४-धमका क्या स्वरूप है ? उत्तर- धर्मके स्वरूपका कई प्रकारोसे वर्णन है, उन्हें क्रमसे निरखते है। उनमे प्रायः
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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