SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६९ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका दोनो भावनाप्रोमे अन्तर है । प्रश्न २०७--अशुचित्वानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर-रजवीर्यमलसे उत्पन्न, मलको ही उत्पन्न करने वाले, मलसे ही भरे देहकी अशुचिता चिन्तवन करने और अशुचि देहसे विरक्त होकर सहज शुचि चैतन्यस्वभावकी भावना करनेको अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते है ? प्रश्न २०८-अशुचित्वानुप्रेक्षासे क्या लाभ होता है ? उत्तर- देहकी अशुचिताकी भावनासे देहसे विरक्ति होती है और देहसे विरक्ति होनेके कारण देहसयोग भी यथा शीघ्र ममाप्त हो जाता है तब परमपवित्र निज ब्रह्ममे स्थित होकर यह अन्तगत्मा दुःखोसे मुक्त हो जाता है । प्रश्न २०६-पासवानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर-मिथ्यात्व, कपाय प्रादि विभावोके कारण ही प्रास्रव होता है, प्रास्रव हो ससार व समस्त दुःखोका मूल हे-इस प्रकार मिथ्यात्व कपायरूप पासवोमे होने वाले दोषोंके चिन्तवन करने व निरासव निजपरमात्मतत्त्वकी भावना करनेको आलवानुप्रेक्षा कहते है । प्रश्न २१०-पालगनुप्रेक्षासे क्या लाभ होता है ? उत्तर-आस्रवके दोपोके परिज्ञान और उससे दूर होनेके चिन्तवनके फलस्वरूप यह पात्मा निरासन निज परमात्मतत्त्वके उपयोगके वलसे प्रास्रवोसे निवृत्त हो जाना है और अनन्तसुखादि अनन्तगुणोसे परिपूर्ण सिद्धावस्थाका अधिकारी हो जाता है। प्रश्न २११-सवरानप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर- जैसे जहाजके छिद्रके बन्द हो जानेपर पानीका पाना बन्द हो जाता है, जिससे जहाज किनारेके नगरको प्राप्त कर लेता है, इसी प्रकार शुद्धात्मसवेदनके बलसे मानव का छिद्र बन्द हो जानेपर कर्मका प्रवेश बन्द हो जाता है, जिससे आत्मा अनन्तज्ञानादिपूर्ण मुक्तिनगरको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार सवरके गुणोका चिन्तवन करने और परमसवरस्वरूप निज शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना करनेको सवरानुप्रेक्षा कहते है। प्रश्न २१२-सवरानुप्रेक्षासे क्या लाभ है ? उत्तर-परमसवरस्वरूप निजशुद्ध कारणपरमात्माकी भावनासे प्रास्रवकी निवृत्ति होतो है । सवरतत्त्व मोक्षमार्गका मूल है, इसकी सिद्धिसे मोक्ष प्राप्त होता है । प्रश्न २१३- निर्जरानुप्रेक्षा किसे कहते है ? उत्तर-"जैसे अजीणं होनेसे मलसञ्चय होने पर प्राहारको त्याग कर औषधि लेने से मल निर्जरित हो जाता है याने दूर हो जाता है, इसी तरह अज्ञान होनेसे कर्मसञ्चय होने पर आत्मा मिथ्यात्वरागादिको छोडकर सुख दुःखमे समतारूप परमोपधिको ग्रहण करता
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy