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________________ नाथा ३५ १६५ प्रश्न १९३ - अनादि नित्यनिगोदोके क्या यह परक्षेत्रपरिवर्तन हो सकता है ? उत्तर - नादिनित्यनिगोद जीवोके भी यह परक्षेत्रपरिवर्तन होता है, क्योकि इसमे लोकके एक एक प्रदेशपर क्रमसे उत्पन्न होनेकी बात है । शरीर की अवगाहनाका इसमे क्रम नही है । प्रश्न - १६४ - कालपरिवर्तनका क्या स्वरूप है ? उत्तर - कोई जीव उत्सर्पिणीकालके प्रथम समयमे उत्पन्न हुआ । पश्चात् अन्य उत्सर्पिणीकालके दूसरे समयमे उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार अन्य अन्य उत्सर्पिणीकालके तीसरे, चौथे आदि समयोमे उत्पन्न हुआ । इस प्रकार उत्सर्पिणीकाल व प्रवसर्पिणीकालके बीस कोड़ा कोडी सागरके जितने समय है उन सन्दमे इस क्रमसे उत्पन्न हुआ और मरणको प्राप्त हुआ । इस बीच अनन्तो बार अन्य अन्य समयोमे उत्पन्न हुआ वह सब अलग है, उसको इसमे गिनती नही । इसमे जितना काल लगता है उतना काल परिवर्तनका है, ऐसे-ऐसे अतत कालपरिवर्तन इस जीवने किये है | प्रश्न १९५ - भत्रपरिवर्तनका क्या स्वरूप है ? उत्तर - भव नाम गतिका है । चारो गतियोमे विशिष्ट क्रम लेकर परिभ्रमण करना भवपरिवर्तन है । जैसे कोई जीव तिर्यग्भवको जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त लेकर उत्पन्न हुआ । फिर अन्तर्मुहूर्त मे जितने समय है उतनी बार इसी ग्रायुके साथ उत्पन्न हुआ । पश्चात् क्रमसे एक-एक समय अधिक आयु लेकर तिर्थग्भवमे उत्पन्न होकर तीन पल्यकी आयु पूर्ण कर ली । यह तिर्यग्भव परिवर्तन है । इस बीच अनन्तो बार क्रम विरुद्ध आयु लेकर उत्पन्न होता रहता है, वह इस गिनतीमे नही है । कोई जीव नरकभवकी जघन्यस्थिति दस हजार वर्षकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । पश्चात् दस हजार वर्षके जितने समय है उतनी बार दस हजार वर्षकी जघन्य प्रायु लेकर उत्पन्न हो । पश्चात् क्रमसे एक-एक समय अधिककी नरकायु लेकर उत्पन्न हो होकर उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर प्रमाण आयुको पूर्ण कर ले। इस बीच अन्य भव तो लेने ही पडते, क्योकि नरकभव के बाद ही वह जीव नारकी नही होता, मनुष्य या तिर्यञ्च होता है तथा अनेक बार क्रमविरुद्ध नरककी श्रायु लेकर उत्पन्न होता है, वह सब इस गिनती मे नही है । यह नरकभवपरिवर्तनकी तरह है, क्योकि मनुष्यश्रायु भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्यकी होतो है । देवभवपरिवर्तन नरकभवपरिवर्तनको तरह लगाना, किन्तु उत्कृष्ट ग्रायुमे ३१ सागर तक ही कहना, क्योकि इससे बडी स्थितिकी देवायु सम्यग्दृष्टिको ही मिलती है । इस प्रकार इन चारो भवपरिवर्तनोमे जितना समय लगता है उतना काल भवपरि ·
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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