SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका वैवरण भी नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनको तरह करना चाहिये । इस प्रकार ४ भागो पूर्वक कर्मद्रव्यरिवर्तनके पूरा होनेमे जितना समय लगता है उतना समय कर्मद्रव्यपरिवर्तनका है । ऐसे-ऐसे इनन्त कर्मद्रव्यपरिवर्तन भी इस जीवके हो गये है। प्रश्न १८६-क्षेत्रपरिवर्तनका काल किस प्रकार जाना जाता है ? उत्तर-क्षेत्रपरिवर्तनका काल दो प्रकारोसे जाना जाता है-(१) स्वक्षेत्रपरिवर्तन और (२) परक्षेत्रपरिवर्तन । प्रश्न १६८- स्वक्षेत्रपरिवर्तनका क्या स्वरूप है ? उत्तर--स्वका अर्थ यहाँ जीव है, सो इस परिवर्तनका स्वरूप जीवके निजक्षेत्र याने देश अथवा शरीरको अवगाहनासे जाना जाता है। जीवकी जघन्य अवगाहना धनागुलके सख्यातवें भागप्रमाण है। उतनी अवगाहना लेकर जीवने देह धारण किया, फिर इस अवहनामे जितने प्रदेश है उतनी बार इतनी ही अवगाहना वाला शरीर धारण करे । पश्चात् क-एक प्रदेश अधिक-अधिककी अवगाहनासोको क्रमसे धारण करते-करते महामत्स्यकी त्कृष्ट (१००० योजन लम्बा, ५०० योजन चौडा, २५० योजन ऊँचा) अवगाहना पर्यन्त मस्त अवगाहनोको धारण कर ले, इसे स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते है। इसमे जितना काल व्यत होता है उतना स्वक्षेत्रपरिवर्तनकाल है । वीचमे अनन्नो बार क्रमविरुद्ध अवगाहनायें त होती रहती है वे सब अलग है । ऐसे-ऐसे क्षेत्रपरिवर्तन अनन्त हो चुके है। प्रश्न १६१-~-जिन जीवोने निगोद शरीरको छोडकर दूसरा शरीर ग्रहण नही किया के स्वक्षेत्रपरिवर्तन कैसे हो सकता है.? उत्तर- जिन जीवोने निगोदपर्यायको अब तक छोडा भी नही उन जीवोके स्वक्षेत्ररवर्तन तो नही होता, किन्तु अन्य जीवोके अनन्त स्वक्षेत्रपरिवर्तन होनेमे जितना काल व्यत हुआ है उतना याने अनन्तकाल निगोद जीवोका भी ससार-भ्रमणमे व्यतीत हुना है। प्रश्न १९२- परक्षेत्रपरिवर्तनका क्या स्वरूप है ? उत्तर-परक्षेत्रका अर्थ है आकाशक्षेत्र । कोई जीव जघन्य (धनागुलके असख्यातभाग ण) अवगाहना धारण कर लोक या लोकाकाशके आठ मध्यप्रदेशोको अपने शरीरके मध्य आठ प्रदेशोसे व्यापकर उत्पन्न हुआ। पश्चात् इस भवगाहनामे जितने प्रदेश है उतनी बार नी ही अवगाहना लेकर इसी स्थानपर इसी रीतिसे उस जीवने जन्म धारण किया। पीछे कके एक-एक प्रदेशके अधिक क्रमसे समस्त लोकमे जन्म धारण कर ले, इस परिवर्तनको क्षेत्रपरिवर्तन कहते है। इसमे जितना काल लगता है उतना परतेत्रपरिवर्तनका काल नना । बीचमे कही भी अनतो बार उत्पन्न होता रहता है वह सब अलग है, इसकी गिनती नहीं पाता । ऐसे-ऐसे अनन्त परक्षेत्रपरिवर्तन इस जीवने किये है।
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy