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________________ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका (५) सत्य, (६) सयम, (७) तप, (८) त्याग, (६) पाकिचन्य और (१०) ब्रह्मचर्य । प्रश्न १६७-- क्षमा नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर-क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी व म्वय समर्थ होकर भी दूसरेको क्षमा कर देने तथा निज ध्र वस्वभावके उपयोगके बलसे ससार-भ्रमणके कारणभूत मोहादि भावोको शान्त कर अपनेको क्षमा कर देनेको क्षमा कहते है। प्रश्न १६८-मार्दव नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर- जाति, कुल, विद्या, वैभव आदि विशिष्ट होनेपर भी दूसरोको तुच्छ न मानने व स्वय अहङ्कारभाव न करने तथा निज सहज स्वभावके उपयोगके बलसे, अपूर्ण विकासमे अहङ्कारता समाप्त करके अपनी मृदुता प्रकट कर लेनेको मार्दवधर्म कहते है । प्रश्न १६६-आर्जव नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर-किसीके प्रति छल कपटका व्यवहार व भाव न करने तथा निज सरल चैतन्यस्वभावके उपयोगसे स्वभावविरुद्ध भावोको नष्ट करके अपनी यथार्थ सरलता प्रकट कर लेनेको आर्जवधर्म कहते है। प्रश्न १७०- शौच नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर--किसी भी वस्तुकी तृष्णा या लालच न करने तथा निज स्वत सिद्ध चैतन्यस्वभावके उपयोग बलसे परोपयोग नष्ट करके निःसङ्ग, स्वच्छ अनुभव करनेको शौचधर्म कहते है। प्रश्न १७१--सत्य नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर- जिस वचन और क्रियाके निमित्तसे निज सत् स्वरूप याने आत्मस्वरूपकी ओर उन्मुखता हो उसे सत्यधर्म कहते है, तथा निज अखण्ड सत्के उपयोगसे निजस्वरूपके कालिक तत्त्वका अनुभवन हो, उसे सत्यधर्म कहते है। प्रश्न १७२-~-सयमनामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर- इन्द्रियसयम व प्राणसयम द्वारा स्वपरहिसासे निवृत्त होने तथा निज नियत चैतन्यस्वभावके उपयोगसे पर्यायदृष्टियोको समाप्त कर निजस्वरूपमे लीन होनेको सयमधर्म कहते है। प्रश्न १७३-तप नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ? उत्तर--रागादिके अभावके लिये विविध कायक्लेश और मनके या इच्छाके निरोध करनेको तथा नित्य अन्त.प्रकाशमान निज ब्रह्मस्वभावके उपयोगसे, विभावसे निवृत्त होकर स्वभावमे तपनेको तपधर्म प्रश्न १७४-त्याग नामक धर्माङ्ग किसे कहते है ?
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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