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गथा ३४ marnउत्तर-एकदेशनिरावरण शुद्धोपयोग क्षाकोपशमिक भाव है, वह स्वयं शुद्ध भाव नहीं) है, किन्तु शुद्धाशुद्धरूप है, अपूर्ण है । यह ध्येय अथवा उपादेय नही है । एकदेशनिरावरण शुद्धो पयोगका विषयभूत अखण्ड, सहजनिरावरण परमात्मस्वरूप ध्येय और उपादेय है, खण्डज्ञानरूप यह एकदेशनिरावरण शुद्धोपयोग ध्येय व उपादेय नही है । इस अपूर्ण शुद्धोपयोगके ध्यान से यह एकदेशनिरावरण शुद्धोपयोग होता भी नही है।
प्रश्न ६३-इस उक्त समस्त वर्णनसे हमे क्या शिक्षा लेनी चाहिये ? Oh उत्तर-परमशुद्धनिश्चयनयके विषयभूत अखण्ड निजस्वभावकी दृष्टि करके अपने आपकी इस प्रकार स्वरूपाचरण सहित भावना होनी चाहिये-- मै सर्व अन्य पदार्थोसे अत्यन्त, जुदा हू, अपने ही गुणोमे तन्मय हू, कालिक चैतन्यस्वभावमय हू, स्वतःसिद्ध हूँ, अनादि शुद्ध हू, सहजसिद्ध हूं, निरजन हूं, ज्ञानानन्दस्वरूप हू इत्यादि ।
प्रश्न ६४- आत्माके शुद्धस्वरूपको भावनाका क्या फल है ?
उत्तर- शुद्ध आत्मतत्त्वको भावना, आश्रयसे निर्मल पर्याय प्रकट होता है जो कि सहज आनन्दका पुञ्ज है।
प्रश्न ६५- ससार-अवस्थामे प्रात्मा शुद्ध तो है नही, फिर असत्यकी भावना मोक्षमार्ग कैसे हो सकता?
उत्तर- सामान्य स्वभाव, द्रव्यदृष्टिसे परखा गया स्वभाव आत्मामे अन्त. सदा प्रकाशमान है । वह तो अन्योपयोगसे तिरोभूत हुआ था, किन्तु इस ही के उपयोगमे यह स्वभाव प्रत्यक्ष हो जाता है।
इस प्रकार सवरके लक्षणोका वर्णन करके भावसवरके कारणरूप भावसवरके भेदो को कहते है
वदसमिदीगुत्तीपो धम्मारगुपेहा परीसहजयो य ।
चारित्त वहुभेया णायव्वा भावसवरविसेसा ॥३५॥ अन्वय- वदसमिदीगुत्तीनो धम्माणुपेहापरीसहजनो य चारित्त वहुभेया भावसवर विसेसा णायव्वा ।
अर्थ- व्रत समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र बहुत भेद वाले ये सब भावसंवरके विशेष जोनना चाहिये ।
प्रश्न १- व्रत किसे कहते है ?
उत्तर-शुद्ध चैतन्यस्वभावमय निज शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावनासे शुभ अशुभ समस्त रागादि विकल्पोकी निवृत्ति हो जाना व्रत है।
प्रश्न २- इस व्रतकी साधनाके उपाय क्या है ?