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गाथा २
विस्ससोदगई । ।
अर्थ-वह जीव जीने वाला है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, अपने देहके बराबर है, भोक्ता है, ससारमे स्थित है, सिद्ध है और स्वभावसे ऊर्ध्वगमन वाला है । . .
प्रश्न १---अन्वयमे सर्वप्रथम 'सो' शब्दसे तभी अर्थ ध्वनित होता जब कि पहले जीवके बारेमे कुछ कह आये होते । यहां 'सो' शब्द कैसे दे दिया ?
उत्तर-यद्यपि 'सो' शब्द सिद्धोके बाद ठीक है, क्योकि जो ऐसा विशिष्ट है वह स्वभावसे ऊर्ध्वगमन वाला है तथापि अर्थमे साथ साथ नव अधिकारीको स्पष्ट करनेके लिये सो शब्द पहिले दिया है।
प्रश्न २--'सो' शब्दसे जीवका ग्रहण कैसे कर लिया ?
उत्तर--इसके कई हेतु ये है-१-नमस्कार गाथामे पहिले जीवद्रव्य कहा है, उसके सम्बन्धमे यह उसके बादकी गाथा है । २-इस गाथामे दिये हुए विशेपण स्पष्टतया जीवके हैं । ३-इस ग्रन्थमे प्रति मुख्यतया जीवद्रव्यका वर्णन है। सर्व द्रव्योके वर्णनमें जीवका वर्णन मुख्य होता है । ।
प्रश्न ३-जीने वाला है, इसका भाव क्या है ?
उत्तर-इस विशेषणको व अन्य सभी विशेषणोको समझनेके लिये अशुद्धनय व शुद्धनय दोनो दृष्टियोसे परीक्षण करना चाहिये। जीव शुद्धनयसे तो शुद्ध चैतन्यप्राणसे ही जीता है जो शुद्ध चैतन्य अनादि अनत अहेतुक व स्व-पर-प्रकाशक स्वभावी है । परन्तु अशुद्धनयसे प्रनादि कर्मबन्धके निमित्तसे अशुद्ध प्राणो (इन्द्रिय, बल, आयु, उच्छ्वास) करि जीता है।
प्रश्न ४-इस विशेषणके देनेकी क्या सार्थकता है ?
उत्तर-जीवकी सत्ता माननेपर ही तो सर्व धर्म अवलम्बित है । कितनोका तो ऐसा अभिप्राय है कि जीव कुछ नही है, यह सब तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुके समागमका चमकार है, वे-निज चैतन्यमे कैसे स्थिर होगे, वे तो जिस किसी भी भावपूर्वक प्रतमे मरण करके भी स्वसे च्युत रहकर भव-दुःख बढावेगे । इसलिये आस्तिकताकी सिद्धिके लिये वह विशेषण दिया है।
___ प्रश्न ५–जीवको जैसा दोनो नयोसे घटित किया है ये दोनो स्वरूप जीवमे क्या एक साथ है अथवा क्रमसे ?
उत्तर-ये दोनो स्वरूप एक साथ है, क्योकि ध्रव चैतन्य बिना व्यवहार प्राण कैसे बनेंगे और इस ससार दशामे व्यवहार प्राण प्रकट प्रतीत हो रहे हैं । हां इतनी बात अवश्य है कि कर्ममुक्त होनेपर वह व्यवहारसे (पर्यायसे) जो कि शुद्ध निश्चयनयस्वरूप है, चैतन्यकी शुद्ध व्यक्तिसे जीता है।