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समाजमें साहित्यिक सद्रुचिका अभाव :८:
जैनसमाजमे पूजा-प्रतिष्ठाओ, मेले-ठेलो, मन्दिर-मूर्तियोके निर्माण, मन्दिरोकी सजावट और तीर्थयात्रा आदि जैसे कार्यों में जैसा भाव और उत्साह देखने में आता है वैसा सत्साहित्यके उद्धार और नव-निर्माण जैसे कार्योंमे वह नही पाया जाता। वहाँ करोडो रुपये खर्च होते हैं तो यहां उनका सहस्राश भी नही । इसका मूल कारण समाजमे साहित्यिक सद्रुचिका अभाव है और उसीका यह फल है जो आज हजारो ग्रन्थ शास्त्रभडारोकी कालकोठरियोमे पडे हुए अपने जीवनके दिन गिन रहे हैंकोई उनका उद्धार करनेवाला नही है। यदि भाग्यसे किसी सद्ग्रन्यका उद्धार होता भी है जो वह वर्षों तक प्रकाशकोके घर पर पडा-पडा अपने पाठकोका मुँह जोहता रहता है-उसको जल्दी खरीदनेवाले नही, और इस बीचमे कितनी ही ग्रन्थप्रतियोकी जीवन-लीलाको दीमक तथा चूहे आदि समाप्त कर देते हैं। इसी तरह समयकी पुकार और आवश्यकताके अनुसार नवसाहित्यके निर्माणमें भी जैनसमाज बहुत पीछे है । उसे पता ही नही कि समय की आवश्यकताके अनुसार नव-साहित्यके निर्माणकी कितनी अधिक जरूरत है-समयपर नदीके जलको नये घडेमे भरनेसे वह कितना अधिक ग्राह्य तथा रुचिकर हो जाता है । किसी भी देश तथा समाजका उत्थान उसके अपने साहित्यके उत्थानपर निर्भर है। जो समाज अपने सत्साहित्यका उद्धार तथा प्रचार नही कर पाता और न स्फूर्तिदायक नवसाहित्यके निर्माणमें ही समर्थ होता है वह मृतकके समान है और