________________
युगवीर - निवन्धावली
दो-ढाई वर्षकी छोटी अवस्थामे ही तुम्हारी वडे आदमियो जैसी समझकी बातें, सबके साथ 'जी' की बोली, दयापरिणति, तुम्हारा सन्तोष, तुम्हारा धैर्य और तुम्हारी अनेक दिव्य चेष्टाएँ किसीको भी अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नही रहती थी । तुम साधारण बच्चोकी तरह कभी व्यर्थकी जिद करती या रोती - रडाती हुई नही देखी गई । अन्त की भारी वोमारीकी हालतमे भी कभी तुम्हारे कूल्हने या कराहने तककी आवाज नही सुनी गई, वल्कि जब तक तुम बोलती रही और तुमसे पूछा गया कि 'तेरा जी कैसा है' तो तुमने बडे धैर्य और गम्भीरतासे यही उत्तर दिया कि 'चोखा है' । वितर्क करनेपर भी इसी आशयका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था । स्वस्थावस्था मे जब कभी कोई तुम्हारी बातको ठीक नही समझता था या समझनेमे कुछ गलती करता था तो तुम बरावर उसे पुन पुन कहकर या कुछ अते-पते की बातें बतलाकर समझानेकी चेष्टा किया करती थी और जब तक वह यथार्थ वातको समझ लेनेका इजहार नही कर देता था तब तक बराबर तुम 'नही' शब्दके द्वारा उसकी गलत वातोका निषेध करती रहती थी । परन्तु ज्यो ही उसके मुँह से ठीक बात निकलती थी तो तुम 'हाँ' शब्दको कुछ ऐमे लहजेमे लम्बा खीचकर कहती थी, जिससे ऐसा मालूम होता था कि तुम्हे उस व्यक्तिकी समझपर अब पूरा सन्तोष हुआ है ।
७३२
तुम हमेशा सच बोलती थी और अपने अपराधको खुशीसे स्वीकार कर लेती थी । बुद्धि-विकास के साथ-साथ आत्मामे शुद्धिप्रियता, निर्भयता, निस्पृहता, हृदयोच्चता और स्पष्टवादिता जैसे गुणोका विकास भी तेजीसे हो रहा था । धायके चले जानेके
'