________________
सन्मति-विद्या-विनोद
: १२: प्यारी पुत्रियो । सन्मती और विद्यावती ! आज तुम मेरे सामने नही हो-तुम्हारा वियोग हुए युग बीत गये, परन्तु तुम्हारी कितनी ही स्मृति आज भी मेरे सामने स्थित है हृदयपटलपर अकित है। भले ही कालके प्रभावमे उसमे कुछ धुधलापन आगया है, फिर भी जब उघर उपयोग दिया जाता है तो वह कुछ चमक उठती है।
बेटी सन्मति,
तुम्हाग जन्म असोज सुदी ३ सवत् १६५६ शनिवार ता० ७ अक्तूबर सन् १८६६ को दिनके १२ वजे सरसावामे उसी सूरजमुखी चौबारेमे हुआ था जहाँ मेरा, मेरे सब भाइयोवा, पिता-पितामहका और न जाने कितने पूर्वजोका जन्म हुआ था और जो इस समय भी मेरे अधिकारमे सुरक्षित है। भाई-बांटके अवसरपर उसे मैंने अपनी ही तरफ लगा लिया था।
वालकोके जन्मके समय इधर ब्राह्मणियां जो वधाई गाती थी वह मुझे नापसन्द थी तथा असङ्गत-सी जान पडती थी और इसलिये तुम्हारे जन्मसे दो एक मास पूर्व मैने एक मङ्गलवधाई' स्वय तैयार की थी और उसे ब्राह्मणियोको सिखा दिया था। ब्राहमणियोको उस समय बधाई गानेपर कुछ पैसे-टके ही मिला करते थे, मैने उन्हे जो मिलता था उससे दो रुपये अधिक अलगसे देनेके लिये कह दिया था और इससे उन्होने खुशो-खुशी १. इस मगल वधाईकी पहली कली इस प्रकार थी
"गावो री वधाई सखि मगलकारी।"