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अमर प० टोडरमल्लजी
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निर्भीक आलोचनाका भी कितना ही पता चलता है। इसमें आपने मिथ्यादृष्टि एव ढोगी जैनियोकी भी खूब खबर ली है ओर अनेक शका-समाधानो-द्वारा बडी-बडी उलझनोको सुलझाया है । खेद है कि यह ग्रन्थ अधूराही रह गया है। कही यह ग्रन्थ पूरा हो जाता तो जैन-साहित्यका एक अनमोल हीरा होता ओर अकेला ही सैकडोका काम देता, फिर भी जितना है वह भी कुछ कम नहीं है और बहुतोको सन्मार्गपर लगानेवाला है । ____गोम्मटसारके अध्ययन-अध्यापनका जो प्रचार आज सर्वत्र देखने आरहा है उसका प्रधान श्रेय आपकी हिन्दी टीकाको ही प्राप्त है। आपके ये सब गद्य-ग्रन्थ, जिनकी श्लोक-सख्या एक लाखसे कम न होगी, अपने समय (विक्रमको १६ वी शताब्दीके प्रारभ ) को गद्य-रचनामे अपना प्रधान स्थान रखते हैं और हिन्दी ससारके लिये आपकी अपूर्व देन है।
निस्सन्देह प० टोडरमल्लजीने अपनी कृतियो और प्रवृत्तियो के द्वारा जहां जै.-समाजको अपना चिर-ऋणी बनाया है, वहाँ विद्वानोके सामने एक अच्छा अनुकरणीय आदर्श भी उपस्थित किया है। काश । हमारे विद्वान इस बातके महत्वको समझें और स्वर्गीय मल्लजीके जीवनसे शिक्षा ग्रहणकर उनके पथका अनुकरण करते हुए जैनधर्म और जनसाहित्यकी सेवाके लिये, जो कि वस्तुत विश्वकी सेवा है, अपनेको उत्सर्ग करदें ।। यदि ऐमा हो तो जैनसमाज हो नही, किन्तु सारा विश्व शीघ्र ही उन्नतिके पथ पर अग्रसर हो सकता है और तभी हम वास्तवमे मल्लजीके ऋणसे उऋण हो सकते है ।
१. वीरवाणी, जनवरी १९४८