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प्रवचनसारका नया संस्करण
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यका प्रवचनसार ( पवयणसार ) जैन वाड्मयका एक बहुत ही प्रसिद्ध मान्य ग्रन्य है और अनेक विषयोमे अपनी खास विशेषता रखता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायोमे यह समानरूपसे आदरका पात्र बना हुआ है और सभी इसे गौरवभरी दृष्टिसे देखते हैं। कुछ वर्ष हुए, जब मैं अहमदावादमे था, तब मैने अनेक श्वेताम्बर विद्वानोको यह कहते सुना है कि प्रवचनसारकी जोडका दूसरा ग्रथ जैन-साहित्यमे नही है। और इसमे कुछ भी अत्युक्ति मालूम नही होतीअनेक दृष्टियोसे यह ग्रथ है भी वास्तवमे ऐसा ही । इस ग्रथरत्नको सबसे पहले प्रकाशित करनेका श्रेय बम्बईकी 'रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला' को प्राप्त है, जो कि 'परमश्रुतप्रभावक-मडल' नामकी एक उदार श्वेताम्बरीय सस्थाद्वारा सचालित है। इसका प्रथम सस्करण वीर-निर्वाण-संवत् २४३६ विक्रम स० १६६६ मे, प० मनोहरलाल शास्त्रीद्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ था और उसी समय मैने उसको मँगा लिया था। उस वक्त ग्रथके साथमे श्रीअमृतचन्द्र सूरिकी 'तत्त्वप्रदीपिका', जय सेनाचार्यकी 'तात्पर्यवृत्ति', पाडे हेमराजकी 'वालाववोघ' नामकी हिन्दी भापा-टीका-इस प्रकार तीन टीकाएँ--एक विषयानुक्रमणिका
और एक साधारणसी डेढ पेजकी हिन्दी भूमिका ( प्रस्तावना) लगी हुई थी। पृष्ठ-सख्या सव मिलाकर ३६० थी और मूल्य था सजिल्ट अथका तीन रुपये। ग्रथका यह सस्करण वर्षासे अप्राप्य था और इसीलिये वम्बई विश्वविद्यालयने इस ग्रथको अपने कोर्स ( पाठ्यक्रम ) से निकाल दिया था।