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युगवीर-निवन्धावलो साहित्यके प्रेमीको प्रसन्नता न होगी ? मेरे लिए तो यह और भी अधिक प्रसन्नताका विपय है, क्योकि कुछ असेंसे यह ग्रथ मेरे विशेप परिचयमे आया हुआ है । गतवर्ष (सन् १९३३) कोई चार महीने आराम रहकर तथा ६-१० घटेका प्रतिदिन परिश्रम करके मैने धवल और जयधवल दोनो ही सिद्धान्त-ग्रथोका अवलोकन किया है और लगभग एक हजार पृष्ठके उपयोगी नोट्स भी उनपरसे उतारे हैं, जिससे समाजको इन ग्रथोका विस्तृत परिचय दिया जा सके। उस वक्तसे इन ग्रथोके विषयमे रिसर्च (अनुसधान ) का भी कितना ही कार्य चल रहा है ।
इस अवलोकनादिपरसे मुझे इन ग्रथो, ग्रथप्रतियोके लेखनकार्य और उनके कुछ विभिन्न पाठोका जैसा कुछ अनुभव हुआ है उसे सामने रखकर जब मैं प्रकाशनकी उक्त योजनाको पढता हूँ तो मुझे यह कहने मे ज़रा भी सकोच नहीं होता कि इन ग्रथोके प्रकाशनमै आवश्यकतासे कही अधिक शीघ्रतासे काम लिया जा रहा है । ये ग्रन्थ जितने अधिक महत्वके हैं उतनी ही अधिक सावधानीसे प्रकाशित किये जानेके योग्य है । खुद प्रोफेसर साहबने इस बातको स्वीकार किया है कि 'इतने वडे ग्रन्थोके सम्पादन नादिकी व्यवस्थाका वारवार होना कठिन है' और यह ठीक ही है। ऐसी हालतमे प्रथम बार ही बहुत अधिक सावधानी तथा परिश्रमके साथ इनका सम्पादनादि कार्य उत्तमरीतिसे होना चाहिये, जिससे मूलग्रन्थ अपने असली रूपमे पाठकोंके सामने आ सके और उसके विषयमें किसी प्रकारकी अशुद्धियाँ, गलतफहमियां अथवा भ्रान्तियाँ रूढ न होने पावें। इसके लिये निम्नलिखित वातोकी खास जरूरत है .
(१) सबसे पहला मुख्य कार्य यह है कि जिस प्रतिपरसे ग्रन्थ छपाया जाय उसे मूडबिद्रीकी उस प्राचीन प्रतिपरसे मुका