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युगवोर-निवन्धावली
और अज्ञान मिथ्यात्व उसे, "जिसमे श्रद्धानका सर्वथा अभाव होता है अर्थात किसी प्रकारका कोई श्रद्धान नही होता।' इस प्रकारके स्वरूपका तत्वार्थसार और तत्वार्थ-राजवातिकादि ग्रन्थोसे मेल नहीं मिलता।
(५) गाथा न० ४४ की टीकामे जानावरणीय कर्मके उपशमसे 'ज्ञान' और दर्शनावरणीय कर्मके उपशमसे 'दर्शनका' उत्पन्न होना लिखा है, और इस तरहपर ज्ञान तथा दर्शनको 'औपशमिक' भी प्रगट किया है, जो जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे विल्कुल गिरा हुआ है , क्योकि ज्ञान तथा दर्शन क्षायिक' और 'क्षापोपशमिक' इस तरह दो प्रकार का होता है। इसी प्रकार ग्रन्थके परिशिष्टमै, जो यह लिखा है कि केवलज्ञानीको कर्मोका कोई आस्रव नही होता, वह भी जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे ठीक नही है । क्योकि सयोगकेवलीके योग विद्यमान होनेसे कमोका आश्रव जरूर होता है-भलेही कषायका अभाव होनेसे स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध न हो।
अन्तमे मैं अपने मित्र श्रीयुत कुमार देवेन्द्रप्रसादजीको हृदयसे धन्यवाद देता हूँ, जिन्होने प्राचीन जैनगथोको इस प्रकार टीका-टिप्पणादि-सहित, उत्तमताके साथ प्रकाशित करनेका यह महान् वीडा उठाया है। साथ ही, उनसे यह प्रार्थना भी करता हूँ कि, वे भविष्यमे इस बातका पूरा खयाल रक्खें कि उनके यहाँसे प्रकाशित हुए ग्रन्थोमे इस प्रकारकी भूले न रहने पायँ, और इस तरहसे उनकी ग्रन्थमाला एक आदर्श ग्रन्थमाला बनकर अपने उस उद्देश्यको पूरा करे जिसको लेकर वह अवतरित हुई है।
१. जैनहितैषी, भाग १३, पृ० ५४१ । ता० ३-१-१९१८