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युगवीर-निवन्धावली भवभ्रमणमे पापके ही समान पुण्य भी कारण है या नही ? यदि पुण्यभाव भी बन्धभाव होनेसे भवभ्रमणमे कारण हैं तो उसमे अटके रहने से हानि हुई या लाभ ?
समाधान-शुद्धत्वका लक्ष्य रखते हुए द्रव्य-क्षेत्र-कालभावादिकी परिस्थितियोके अनुसार शुभमे अटके रहनेसे सम्यग्दृष्टिको सचमुच डरनेकी कोई बात नही हे--वह यथेष्ट साधन-सामग्रीकी प्राप्तिपर एक दिन अवश्य मुक्तिको प्राप्त होगा। असख्य ससारी जीवोको अब तक ऐसा करके ही मुक्ति मिली है । अनादिकालसे जिनका परिभ्रमण हो रहा था वेही सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर शुद्धत्वका लक्ष्य रखते हुए शुभभावोका आश्रय लेकर—उनमे कुछ समय तक अटके रह कर-भवभ्रमणसे छूटे हैं। और इस लिये यह कहना कि ससारी जीवको अभी तक मुक्ति क्यो नही मिली वह कोरा भ्रम है। ससारी जीवोमेसे जिनको अभी तक मुक्तिकी प्राप्ति नही हुई उनके विषयमे समझना चाहिये कि उन्हे सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्तिके साथ दूसरी योग्य साधन-सामग्रीकी अभी तक उपलब्धि नही हुई है । सम्यग्दर्शनसे विहीन कोरे शुभभाव मुक्तिके साधन नही और न कोरा पुण्यबन्ध ही मुक्तिका कारण होता है वह तो कषायोकी मन्दतादिमे मिथ्यादृष्टिके भी हुआ करता है । वह पुण्यभाव अपने लेखमे विवक्षित नही रहा है । ऐसी स्थितिमे शकाके शेष अशके लिये कोई स्थान नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके पुण्यभाव तथा उनमे अटके रहनेकी दृष्टिमे बहुत बडा अन्तर है-एक उसे सर्वथा उपादेय मानता है तो दूसरा उसे कथचित् उपादेय मानता हुआ हेय समझता है, और इसलिए दोनोकी मान्यतानुसार उनके हानि-लाभमे अन्तर पड़ जाता है। पुण्यबन्ध सर्वथा ही हानिकारक तथा भवभ्रमणका