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हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ ५२३ निर्दोष क्रियाओका परिपालन करते हुए भी ( यहाँ तक कि अनतवार मुनिव्रत धारण करके भी ) मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही क्यो पड़ा रह जाता है ? आपके लेखानुसार तो वह शुद्धत्वके निकट ( मुक्तिके निकट) होना चाहिए। फिर शास्त्रकारोने उसे असयमी सम्यग्दृष्टिसे भी हीन क्यो माना है ?
समाधान-द्रव्यलिंगी मुनि चाहे वह उत्कृष्ट द्रव्यलिंगी हो या जघन्य, सम्यग्दृष्टि नहीं होता और इस लिए उसकी क्रियाएँ सम्यक्चारितकी दृष्टिसे उच्चतम तथा निर्दोष नही कही जा सकती। निर्दोष क्रियाएँ वही होती है जो सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती है । सम्यग्ज्ञानपूर्वक न होनेवाली क्रियाएँ मिथ्याचारित्रमें परिगणित है, चाहे वे बाहरसे देखनेमे कितनी ही सुन्दर तथा रुचिकर क्यो न मालूम देती हो, उन्हे सक्रियाभास कहा जायगा और वे सम्यक्चारित्रके फलको नही फल सकेंगी। जब तक उस द्रव्यलिंगी मुनिके आत्माको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नही होगी तब तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानमे ही चला जायगा।
मेरे उस लेखमे कही भी द्रयलिंगी मुनियोकी क्रियाएँ विवक्षित नहीं है-शुभभावरूप जो भी क्रियाएँ विवक्षित हैं वे सब सम्पादृष्टिकी विवक्षित है चाहे वह मुनि हो या श्रावक । अतः मेरे लेखानुसार वह द्रव्यलिंगी मुनि शुद्धत्वके निकट होना चाहिये ऐसा लिखना मेरे लेख तथा उसकी दृष्टि को न समझनेका ही परिणाम कहा जा सकता है।
शंका ५.यदि शुभभवोमे अटके रहनेसे डरनेकी कोई बात नही है तो ससारी जीवको अभी तक मुक्ति क्यो नही मिली ? अनादिकालसे जीवका परिभ्रमण क्यो हो रहा है ? क्या वह अनादिकालसे पापभाव हो करता आया है ? यदि नही, तो उसके