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कानजी स्वामी और जिनशासन
प्रास्ताविक
श्री कुन्दाचार्यकी कृतियो मे 'समयसार' एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जो आजकल अधिकतर पठन-पाठनका विषय बना हुआ है । इसको १५वी गाथा अपने प्रचलित रूपमे इस प्रकार है
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जो पस्सदि अप्पाणं भवद्धपुटुं अणण्णमविसेसं । अपदेस संतमज्यं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ १५ ॥ इसमे बतलाया गया कि 'जो आत्माको अबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेष जैसे रूपमे देखता है वह सारे जिनशासनको देखता है।' इस सामान्य कथन पर मुझे कुछ शकाएँ उत्पन्न हुई और मैंने उन्हे कुछ आध्यात्मिक विद्वानो एव समयसार - रसिकोंके पास भेजकर उनका समाधान चाहा अथवा इस गाथाका टीकादिके रूपमे ऐसा स्पष्टीकरण मागा जिससे उन शकाओका पूरा समाधान होकर गाथाका विषय स्पष्ट और विशद हो जाए । परन्तु कही से कोई उत्तर प्राप्त नही हुआ । दो एक विद्वानोसे प्रत्यक्षमे भी चर्चा चलाई गई पर सफल - मनोरथ नही हो सका । और इसलिये मैंने इस गाथाकी व्याख्याके लिये १००) रुपए के पुरस्कारकी एक योजना की और उसे अपने ५००) रु० के पुरस्कारोकी उस विज्ञप्तिमे अग्रस्थान दिया जो अनेकान्त वर्प ११ ( सन् १९५२ ) की सयुक्त किरण न० ४-५ मे प्रकाशित हुई है । गाथाकी व्याख्यामे जिन बातोका स्पष्टीकरण चाहा गया वे इस प्रकार हैं:
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( १ ) आत्माको अबद्ध - स्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूप से देखनेपर सारे जिनशासनको कैसे देखा जाता है ?