________________
समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश
४३१ "व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।" ११-२०३
ऐसी हालतमे उन चाण्डालोको समवसरणमे जानेसे कौन रोक सकता है ? ब्राह्मण होनेसे उनका दर्जा तो शूद्रोसे ऊँचा होगया ।
और स्वामी समन्तभद्रने तो रत्नकरण्डश्रावकाचार ( पद्य २८) मे अवती चाण्डालको भी सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न होनेपर 'देव' कह दिया है और उन्होने भी स्वय नही कहा, बल्कि देवोने वैसा कहा है ऐसा 'देवा देवं विदुः' इन शब्दोके द्वारा स्पष्ट निर्देश किया है। तब उस देव चाण्डालको समवसरणमे जानेसे कौन रोक सकता है, जिसे मानव होनेके अतिरिक्त देवका भी दर्जा मिल गया ?
- इसके सिवाय, म्लेच्छ देशोमें उत्पन्न हुए म्लेच्छ मनुष्य भी सकल सयम ( महाव्रत) धारण करके जैनमुनि हो सकते हैं ऐसा श्रीवीरसेनाचार्यने जयधवला टीकामे और श्रीनेमिचन्द्राचार्य (द्वितीय) ने लब्धिसार माथा १९३ की टीकामे व्यक्त किया है । तब उन मुनियोको समवसरणमे जानेसे कौन रोक सकता है ? वे तो गन्धकुटीके पासके सबसे प्रधान गणधर-मुनिकोठेमे बैठेंगे, उनके लिये दूसरा कोई स्थान ही नहीं है।
ऐसी स्थितिमे अध्यापकजी किस किस आचार्यकी बुद्धिपर 'बलिहारी' होगे ? इससे तो बेहतर यही है कि वे अपनी ही बुद्धिपर बलिहारी हो जाएँ और ऐसी अज्ञानतामूलक, उपहासजनक एव आगमविरुद्ध व्यर्थकी प्रवृत्तियोसे बाज आएँ ।
~अनेकान्त वर्ष ६ कि० ५, २-६-१९४८
१ देखो, उक्त टीकाएँ तथा 'भगवान महावीर और उनका समय नामक पुस्तक पृ० २६