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। अर्थ-समर्थन कुलोद्भवः' या 'प्रशस्तवंशे जातः' स्वीकार करनेसे यह होता है कि जो उत्तम कुल या' अतिश्रेष्ठ वशमे उत्पन्न न हुआ हो, अर्थात् जो मध्यम वा जघन्य कुलोमे उत्पन्न हुआ हो। इस अर्थसे भी उसी अर्थका समर्थन होता है जो मैंने जैन मित्रमे दिया था, क्योकि इसके अनुसार जो उत्तम कुल या अति श्रेष्ठ वशसे कुछ हीन होगा वह 'कुलीन' नही कहलाएगा, उसे 'अकुलीन' कहेगे। आदि क्षत्रिय वश उत्तम वश थे उनकी अपेक्षा ही दूसरे वशोमे उत्पन्न हुए पुरुषोको 'अकुलीन' कहा गया है। ____ असल बात यह है कि उत्तम कुलकी अपेक्षा मध्यम और जघन्य दोनोको अकुलीनताकी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु जघन्य कुलोत्पन्नकी अपेक्षा मध्यम कुलोत्पन्नको अकुलीन नही कह सकते--उसे तब कुलीन ही कहना होगा। इसी प्रकार मध्यमके बहुतसे भेद हो सकते हैं। उन्हे परस्पर अपेक्षासे ही उच्च और नीच कह सकते हैं। लोकमे भी ऐसा ही व्यवहार है । एक ही जाति और गोत्रके एक मनुष्यको बडे कुल, बडे खान्दान और बडे घरानेका पुकारते हैं और दूसरेको छोटे, मामूली या साधारण कुल, खान्दान और घरानेका कहते हैं। ऊंच-नीच कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यो ही मे नहीं, बल्कि शूद्रो और म्लेच्छो तकमे भी पाये जाते हैं। कुलके ये समस्त भेद-प्रभेद अपेक्षाकृत ही होते हैं। आचार्य महोदयने इसी अपेक्षाको लेकर ही 'अकुलीन' शब्दका प्रयोग किया है। उनके इस लिखनेसे कि ( आदिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्ष्मा पास्यन्त्यकुलीनकाः) आदिक्षत्रिय वशोका उच्छेद होकर अकुलीन पृथ्वीका पालन करेगे यही आशय व्यक्त होता है कि जब इक्ष्वाकुवश, कुरुवंश, हरिवंश