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युगवीर-निवन्धावली पडितजीके इन उपर्युक्त खडन-वाक्योसे इतना तो पता चलता है कि आपको केवल 'अकुलीन' शब्दके अर्थपर ही विवाद है । वाकी अर्थको आप ठीक मानते हैं और साथ ही यह भी पता चलता है कि 'अकुलीन' शब्दका जो अर्थ मैने किया है वह भी इस शब्दका अर्थ जरूर है-इससे पडितजीको इन्कार नहीं है। सिर्फ पडितजीका इतना ही कहना है कि यह प्रकरणके अनुकूल योग्य अर्थ नही है। 'अकुलीन' शब्दके अर्थोमेसे वह दूसरा योग्य अर्थ कौन-सा है जिसको प्रकरणके अनुकूल ग्रहण करना चाहिये था? इसको वतलानेकी पडितजीने कोई कृपा नही की और न यह ही प्रगट किया कि 'अ' शब्दके जो दो अर्थ (निपेप और ईपत् ) आपने बतलाये हैं उनमेसे यहाँ कौन-सा अर्थ ग्रहण किया जाय ? परन्तु पाठकोको खुद ही समझ लेना चाहिये कि पंडितजीका अभिप्राय उसी म्लेच्छ कुलसे है । आप 'अकुलीन' शब्दका अर्थ स्लेच्छकुलोत्पन्न ही प्रकरणके अनुकूल समझते हैं, शायद पुनरुक्त दोषके भयसे ही आपने उसे फिर न लिखा हो। ___ अब देखना इस बातको है कि कौन-सा अर्थ वास्तवमै ठीक और प्रकरणके अनुकूल है ? यदि 'अ' का निषेष अर्थ लेकर ही (जो पडितजीको इष्ट मालूम होता है ) अकुलीन शब्दका शब्दार्थ किया जाय तव एक अर्थ तो यह होता है कि कुले भवः 'कुलीनः' जो कुलमे उत्पन्न हो वह कुलीन और जो कुलीन नही वह अकुलीन अर्थात् कुलवर्जित । परन्तु यह योग्य अर्थ हो नहीं सकता। क्योकि ऐसा कोई मनुष्य ही नही है जो कुलरहितहो । उत्तम, मध्यम, जघन्य वा ऊँच-नीचादि कुल भेदोमेसे कोई न कोई कुल मनुष्यका अवश्य ही होता है। दूसरा अर्थ शब्दकल्पद्रुमके अनुसार रूढिसे 'कुलीन' शब्दका अर्थ 'उत्तम