________________
३९६
युगवीर-निवन्धावली रही हो उसका शास्त्रसे भली प्रकार स्पष्टीकरण हो जाने पर भी यदि कोई उसे नहीं छोडता है तो वह उसी वक्तसे मिथ्यादृष्टि है। तभी उन्होने अपने पूर्वके त्यागभावमे सुधार करके उसे आगमके अनुकूल किया होगा।
उक्त शास्त्रीय-चर्चाके लिखे जानेसे कई वर्ष पहले पं० उमरावसिह (व० ज्ञानानन्दजी ) सलावा ( मेरठ ) निवासी जव मेरी दलीलोसे कायल हो गये और उन्हे कन्द-मूल-विषयमे अपनी पूर्वश्रद्धाको स्थिर रखना आगमके प्रतिकूल जंचा तो उन्होने देववन्दमे मेरी रसोईमे ही प्रासुक आलूका भोजन करके कन्द-मूलके त्याग-विषयमे अपने नियमका सुधार किया था।
जैन-समाजमे सैकडो बडे-बडे विद्वान् पडित ऐसे हैं जो अनेक प्रकारसे कन्द-मूल खाते हैं-शास्त्रीय व्यवस्था और पदविभाजनके अनुसार कन्द-मूल खानेमें कोई दोप भी नही समझते। परन्तु उनमें बहुतसे ऐसे भी हैं जो घर पर तो खुशीसे कन्द-मूल खाते हैं, परन्तु बाहर जानेपर कन्द-मूलके त्यागका प्रदर्शन करके अपनी कुछ शान बनाना चाहते हैं, यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं। दूसरे शब्दोमे, इसे यो कहना चाहिये कि वे रूढिभक्तोके सामने सीधा खडा होनेमे असमर्थ होते हैं। और यह एक प्रकारका मानसिक दौर्बल्य है, जो विद्वानोको शोभा नहीं देता। उनके इस मानसिक दौर्बल्यके कारण ही समाजमे कितनी ही ऐसी
१. सम्माइट्ठी जीवो उवइ पवयण तु सद्दहदि ।
सद्दहदि असमाव अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥२७॥ सुत्तादो त सम्म दरसिज्जंत जदा ण सदहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड