________________
२३६
युगवीर-निवन्धावली
मालूम क्यो छोड दिया । ऐसे लोगोके लिये खोज करनेपर भी मुझे इससे अच्छा पूर्ण अर्थका द्योतक कोई दूसरा एक शब्द नही मिला । इस शब्दमे अज्ञानभावके साथ भोलापन मिला हुआ है और यही मुझे उनके सम्बन्धमे व्यक्त करना था। इसीसे मैने मूढ, जड या विवेकशून्य आदि दूसरे कठोर शब्दोका प्रयोग न करके उनकी स्थितिके अनुकूल इस कोमल शब्दका व्यवहार किया है। यदि सन्मार्गपर लानेके उद्देश्यसे ऐसे शब्दोका व्यवहारभी असभ्यतामे परिगणित होने लगे तव तो शास्त्रकारोने जोइन्द्रियविषय-लोलुपी आदि मनुष्योको 'गृद्ध' जैसे नामोसे अभिहित या उल्लेखित किया है, उनकी असभ्यता और असयत भाषाका तो फिर कुछ ठिकाना ही न रहे, इसे वडजात्याजी स्वय सोच सकते हैं। मैं तो यह समझता हूँ कि जिस प्रकारसे एक वृद्ध तथा अच्छे ज्ञानी पुरुषोको भी उस विषयमे 'वालक' कहा जाता है जिसमे वह अनभ्यस्त होता है, उसी प्रकारसे उन पूजकोको, दूसरे विपयोमे उनके महाप्रवीण तथा चतुर होनेपर भी, अपनी उस दशामे 'बुद्ध' कहना ज्यादा उपयुक्त मालूम होता है । यह नाम उनके उस स्वरूपका अच्छा द्योतक है।
लेखके आपत्तिजनक अंशपर विचार :
मैने उस लेखमे' यह प्रकट करते हुए कि "उपासनाका वही सव ढग उपादेय है जिससे उपासनाके सिद्धान्तमे—उसके मूल उद्देश्योमे-कुछ भी बाधा न आती हो" और तदनन्तर ही, यह बतलाते हुए कि "उसका कोई एक निर्दिष्ट रूप नही हो सकता" लिखा था -
१. देखो १६ अगस्त, सन् १९२६ का 'जैन जगत', अक न० १ ।