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युगवीर-निबन्धारली होते हुए रूढियोके उपासकोमेमे ही यदि किसी व्यक्तिकी ओरसे उन रूढियोपर विचार करनेकी बात उठाई जावे तो कहना होगा कि वह एक प्रकारका शुभचिह्न है-उसको भावीका शुभ लक्षण समझना चाहिये । मुझे यह देखकर बहुत हपं हुआ और यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सग्नऊ निवासी पडित रघुनाथदासजीने हाल में ऐसी ही एक बात उठाई है। विशेष आनन्दकी बात यह भी है कि उन्होने सदियोपर विचार करनेकी वह बात एक ऐसे पत्रमे उठाई है जिसका संचालनादि कार्य आजकल ऐसे पुरुपोके हाथमे है जो प्रवृत्तिके अनन्य भक्त और रूढिके पक्के दास वने हुए हैं। वह पत्र महासभाका "जैनगजट' है। इस पत्रके गत १७ फरवरी १९१३ के अकमे, उक्त पडितजीने एक लेख दिया है जिसका शीर्पक है "शास्त्रानुकूल प्रवर्त्तना चाहिये" अर्थात् प्रवृत्ति और रिवाजके मुताविक नही, किन्तु शास्त्रके मुताबिक चलना चाहिये।
जिन विद्वानोने उक्त लेखको पढा है, उनमेसे कुछ महानुभाव शायद यहाँपर यह कहेगे कि "वह लेख तो असम्बद्ध है-वाक्योका सम्बन्ध ही उसमे नही मिलता, अधूरा है--पद-पदपर "आगे दौड पीछे छोड" की नीतिका अनुसरण लिये हुए है--स्वपक्षके मडन और परपक्षके खंडनमे, उसमे न तो कोई शास्त्र-प्रमाण दिया गया और न किसी युक्ति वा हेतुसे कुछ काम लिया गया, यद्यपि उसमे यह तो जरूर लिखा है कि अमुक साहव अर्थ लगानेमे भूल गये, परन्तु वे क्या भूल गये ? और कौन-सा अर्थ ठीक या सही है ? यह कुछ भी नही लिखा । इसी प्रकार कई शास्त्रीय बातोका ऐसा जवानी जमा-खर्च भी कर दिया है जो प्रत्यक्ष शास्त्रसे विरुद्ध पडता है, जैसे मरतजी और चन्द्रगुप्तके समस्त