SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभचिह्न :१: जैन-समाजकी अतरग और बहिरग अवस्थापर-अन्दरूनी और बेरूनी हालतपर-विचार करनेसे मालूम होता है कि आजकल इस समाजमे अज्ञानान्धकारके कारण प्रवृत्ति-देवीकी खूब ही उपासना हो रही है। जैन-जन प्रायः रूढियोके दास, रस्मरिवाजके गुलाम बने हुए हैं। इस दासत्व और गुलामगिरीने उनका कितना अध पतन किया है, उनको कितना नीचे गिराया है और उनकी विचार-शक्तियोको इससे कितना धक्का पहुँचा है, इसका उन्हे कुछ भी खयाल नही है। किसी प्रचलित रीति-रिवाजके विरुद्ध जबान खोलने, उसकी योग्यता-अयोग्यताकै विषयमे विचार करनेको वे एक प्रकारका पाप समझते हैं। अमुक प्रवृत्ति धर्मसे विरुद्ध है या अविरुद्ध, देश-कालके अनुकूल है या प्रतिकूल, शास्त्रोके मुताबिक है या खिलाफ, हितकर है या अहितकर, कबसे और कैसे प्रचलित हुई, इत्यादि बातोपर विचार करना वे अपना कर्तव्य ही नही समझते । कलकी प्रचलित हुई रीतियां भी उनके हृदयमे स्वयसिद्धत्व और अनादि-निधनत्वका रग जमाये बैठी हैं। और यह रग इतना गहरा चढा हुआ है, यह प्रवृत्ति-भक्ति इतनी बढी हुई है कि यदि किसी प्रवृत्तिके विरुद्ध कोई शास्त्रका प्रमाण या किसी आचार्यका वाक्य भी दिखलाया जावे तो जैनी उसको सहसा माननेके लिये शायद ही तैयार होवें, बल्कि आश्चर्य नही कि उनमेसे कोई-कोई व्यक्ति तो उसकी सत्यतासे ही इन्कार कर बैठे और ऐसा कहने या बतानेवाले अपने उस हितैषीके ही उलटे शत्रु बन जावें। ऐसे समयमें समाजकी ऐसी स्थितिके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy