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उपासना-विषयक समाधान
२२७ लेखकके इस सव कथनपरसे कोई भी सहृदय पाठक अथवा विचारक लेखककी मशा, नीयत, अभिप्राय, मन्तव्य, तात्पर्य अथवा आशय-शुद्धिका भले प्रकार अनुभव कर सकता है और यह जान सकता है कि उसके हृदयमे समाजकी विकृत तथा दूपित उपासनाको सुधारने, ऊँचा उठाने और उसमे प्राण-प्रतिष्ठा करनेके लिये कितनी अधिक उत्कठा, चिन्ता तथा तडफ पाई जाती है, वह मदिर-मूर्तियो अथवा चेत्य-चैत्यालयोके निर्माणका विरोधी नही-वैसे विरोधकी तो लेख भरमे कही गध भी नही आती-हॉ, उनको वेढगे तरीकेसे अथवा ऐसे तरीकोसे निर्माण करनेका विरोधी जरूर है जो उनके या उपासनाके उद्देश्यकी सिद्धिमे वाधक हो, और इस विरोधके द्वारा ही वह उनमे सुव्यवस्था लाना चाहता है जो किसी तरह भी अनुचित नही कहा जा सकता । जिन विचारशील पाठकोने लेखकके लिखे हुए 'उपासनातत्त्व' को पढा है, और जिसे पढने तथा पढकर उपासनाके वर्तमान ढगकी कितनी ही गिरावटको महसूस करनेकी उक्त लेखमे प्रेरणा भी की गई है, वे खूब जानते हैं कि उसमे उपासनाके विषयको–उसके सिद्धान्त, रहस्य, उद्देश्य, जरूरत और वर्तमान हालतको-सक्षेपमे, कितनी अच्छी तरहसे दर्शाया गया
और साथमे, मूर्तिपूजाका कितना हृदयग्राही मडन तथा स्पष्टीकरण किया गया है। परन्तु इतनेपर भी बडजात्याजी उक्त लेखमे मदिर-मूर्तियोके विरोधका स्वप्न देखते हैं, लेखकको उनका निपेधक अथवा खडनकर्ता ठहराते हैं और उससे यह पूछनेकी धृष्टता करते हैं कि "क्या आपका विचार हमारेमे ढूंढया पथ चला देनेसे है।" यह सव कितना दु साहस, अर्थका अनर्थ अथवा बुद्धिका विपर्यास है, इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं और इस