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युगवीर-निवन्धावली पोपक सामग्रीकी जगह व्यर्थके आडम्बरोकी वृद्धि होनेसे उपासनाके भावका दिन-पर-दिन कम होते जाना, पूजन-साहित्यका अवनतिकी ओर बदल जाना अथवा भावादिककी दृष्टिसे घटिया हो जाना, और पूजा करने-करानेवालोका अविवोधके द्वारा परमात्माके गुणोमे अनुराग बढानेकी ओर दृष्टि न रखते हुए, अनाप-सनाप ऐसे अशुद्ध पाठोका उच्चारण करना जिनसे बिलकुल ही अर्थका अनर्थ हो जाता हो अथवा स्तुतिकी जगह भगवानकी निन्दा ठहरती हो, इत्यादि । और इस सबके अनन्तर, लेखको समाप्त करते हुएँ, लिखा था
"विज्ञ पाठक इतनेपरसे ही समझ सकते हैं कि हमारी उपासनाका ढग समय-समयकी हवाके झकोरोसे कितना बदलता गया है। उसके बदलनेमे कोई हानि न थी यदि वह उपासना तत्त्वके अनुकूल बना रहता। परन्तु ऐसा नही है, वह कितने ही अंशोमे उपासनाके मूलसिद्धान्तो तथा उद्देश्योसे गिर गया है, जिसका अच्छा अनुभव 'उपासना तत्व' ( नामक पुस्तक ) के अध्ययनसे हो सकता है। और इसलिए इस समय उसको संभालने, उठाने तथा उद्देश्यानुकूल बनाकर उसमे फिरसे नवजीवनका सचार करनेकी बडी जरूरत है। समाज-हितैषियोको चाहिए कि वे इस विषयमे अपना मौन भग करे, अपनी लेखनी उठाएँ, जनताको उपासना-तत्त्वका अच्छा वोध कराते हुए उसकी उपासना-विधिके गुणदोषोको बतलाएँ-सम्यक् आलोचना द्वारा उन्हे अच्छी तरहसे व्यक्त और स्पष्ट करें और इस तरहपर उपासनाके वर्तमान ढगमे समुचित सुधारको प्रतिष्ठित करनेके लिए जी-जानसे प्रयत्न करें। ऐसा होनेपर समाजके उत्थानमे बहुत कुछ प्रगति हो सकेगी।"