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दण्डविधान विषयक समाधान
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श्री मोहनलालजी वडजात्याका 'धर्म और दण्ड' शीर्षक लेख '
खेद भी । प्रसन्नता उसमे शिप्ट तथा सभ्य
पढकर मुझे प्रसन्नता हुई और साथ ही, इसलिये कि लेख सद्भावको लिये हुए है शब्दो- द्वारा मेरे लेखपर आपत्ति की गई है और इसीसे वह मेरी विचार-प्रवृत्तिको अपनी ओर खीच सका है। और खेद इसलिये कि, लेखक महाशयने मेरे लेखको अच्छी तरहसे समझा नही । मालूम होता है, बडजात्याजीको मेरे लेखपरसे कही यह गलत खयाल पैदा हो गया है कि मैं दण्ड विधानको बिलकुल ही उठा देना चाहता हूँ । इसीसे आप लिखते हैं- " ऐसा तो नही कि आप दण्ड विधानको विलकुल उडाना चाहते हो ।" और जान पडता है, इसीलिये आपको अपने लेखकी भूमिकामे व्यर्थ ही यह दिखलानेका परिश्रम उठाना पडा कि, दण्ड - विधान प्राचीनकाल से चला आता है और वह मुनियोमे भी होता आया है । अन्यथा, उसकी कोई जरूरत नही थी । मैंने अपने लेखमे कही भी यह जाहिर नही किया कि पहले कोई दण्ड- विधान नही होता था, किन्तु हालके जैनियो अथवा जैन- पचायतोने उसकी नई ईजाद की है, फिर नही मालूम दण्डमात्रकी प्रथाको प्राचीन सिद्ध करनेका कष्ट क्यो उठाया गया । मेरे लेखसे कोई भी सहृदय अथवा समझदार मानव यह नतीजा निकाल सकता है कि वह आज - कलकी कुछ जाति - पचायतो के ऐसे दण्ड - विधानोको लक्ष्य करके लिखा गया है जो अनुचित हैं । अथवा यो कहिये कि उसमें ऐसी
१. यह लेख ६ अप्रैल १९२६ के जैन जगतमे प्रकाशित हुआ है ।