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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
१८३ सम्बोधन करके, वसुदेवजीने बडी तेजस्विताके साथ जो वाक्य कहे थे उनमेसे स्वयवर-विवाहके नियमसूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है -
कन्या वृणीते रुचित स्पयवरगता वरम् । कुटीनमकुलोन या क्रमो नास्ति स्वयबरे ॥
-सर्ग ११, श्लोक ७१. अर्थात्--स्वयवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसन्द होता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योकि स्वयवरमे इस प्रकारकावरके कुलीन या अकुलीन होनेका-कोई नियम नही होता। ये वाक्य सकलकीर्ति आचार्यके शिष्य श्रीजिनदास ब्रह्मचारीने अपने हरिवंशपुराणमै उद्धृत किये हैं और श्रीजिनसेनाचार्य-कृत हरिवशपुराणमे भी प्राय इसी आशयके वाक्य पाये जाते हैं। वसुदेवजीके इन वचनोसे उनकी उदार परिणति और नीतिज्ञताका अच्छा परिचय मिलता है, और साथ ही स्वयवर-विवाहको नीतिका भी बहुत कुछ अनुभव हो जाता है। वह स्वयवरविवाह, जिसमें वरके कुलोन या अकुलीन होनेका कोई नियम नही होता, वह विवाह है जिसे आदिपुराणमे 'सनातनमार्ग' लिखा है और सम्पूर्ण विवाह-विधानोमे सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है। युगकी आदिमे सबसे पहले जव राजा अकम्पन-द्वारा इस ( स्वयवर) विवाहका अनुष्ठान हुआ था तब भरत चक्रवर्तीने भी इसका बहुत कुछ अभिनन्दन
१ सनातनोऽस्ति मार्गाऽय श्रुतिस्मृतिपु भाषित ।
विवाहविधिभेदेपु वरिष्टो हि स्वयवर ॥४४-३३॥