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युगवीर-निवन्धावली किसी बातमे भी कम नही हैं-उन्हे हीन-दृष्टिसे देखना अथवा उनके प्रति असद्भाव रखना अपनी क्षुद्रता प्रकट करना है । अस्तु ।
___ यह तो हुई तृतीय अशके आक्षेपोकी वात, अव उदाहरण का शेप चौथा अश–'रोहिणीका स्वयंवर' भी लीजिये ।
स्वयंवर-विवाह उदाहरणका यह चौथा अश इस प्रकार लिखा, गया था •~
"रोहिणी" अरिष्टपुरके राजाकी लडकी और एक सुप्रतिष्ठित घरानेकी कन्या थी। इसके विवाहका स्वयवर रचाया गया था, जिसमे जरासन्धादिक बडे-बडे प्रतापी राजा दूर देशान्तरोसे एकत्र हुए थे। स्वयवरमण्डपमे वसुदेवजी, किसी कारणविशेपसे अपना वेप वदल कर 'पणव' नामका वादिन हाथमे लिये हुए एक ऐसे रङ्क तथा अकुलीन वाजन्त्री ( वाजा वजाने वाला) के रूपमे उपस्थित थे कि जिससे किसीको उस वक्त वहा उनके वास्तविक कुल, जाति आदिका कुछ भी पता मालूम नही था। रोहिणीने सम्पूर्ण उपस्थित राजाओ तथा राजकुमारोको प्रत्यक्ष देखकर और उनके वश तथा गुणादिका परिचय पाकर भी जब उनमेसे किसीको भी अपने योग्य वर पसद नही किया, तब उसने सब लोगोको आश्चर्यमें डालते हुए, बडे ही नि सकोच भावसे उक्त बाजन्त्री रूपके धारक एक अपरिचित और अज्ञात कुल-जाति नामा व्यक्ति ( वसुदेव ) के गलेमे ही अपनी वरमाला डाल दी। रोहिणीके इस कृत्यपर कुछ ईलु, मानी और मदान्ध राजा, अपना अपमान समझकर, कुपित हुए और रोहिणीके पिता तथा वसुदेवसे लडनेके लिये तैयार हो गये । उस समय विवाह नीतिका उल्लघन करनेके लिये उद्यमी हए उन कुपितानन राजाओको