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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
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मूलग्रन्थमे 'अतिविश्रंमतः ' यह स्पष्ट पद है, इसमें पति-पत्नी वननेकी कोई वार्ता छिपी हुई नही है और न गंधर्व - विवाह ही अपना मुँह ढाँपे हुए बैठा है । 'विश्रम' शब्दका अर्थ, यद्यपि, विश्वास भी होता है परन्तु 'केलिकलह ' ( Love quarrel ) और 'प्रणय' ( स्नेह ) भी उसके अर्थ है ( ' विश्रंभ. केलिकलहे, विश्वासे प्रणये वधे ) | और ये ही अर्थ यहॉपर प्रकरण-सगत' जान पडते हैं । 'अतिविश्वाससे प्रेमने मर्यादा तोड दी' यह अर्थ कुछ ठीक नही बैठता । हाँ, स्नेहके अतिरेकसे अथवा केलिकलह के बढनेसे—प्रेम-प्रस्ताव के लिये अधिक छेड-छाड, हँसी-मजाक और हाथापाईके होनेसे - प्रेमने उनकी चिरपालित मर्यादा तोड दी', यह अर्थ सगत मालूम होता है ।
परन्तु कुछ भी सही, आप अपने 'विश्वास' अर्थपर ही विश्वास रक्खे, फिर भी तो उसमे से पति-पत्नी होनेकी कोई बात-चीत सुनाई नही पडती और न गन्धर्व विवाहके ही मुखका कहीसे दर्शन होता है । यदि दोनोका गन्धर्व विवाह हुआ होता तो कोई वजह नही थी कि क्यो ऋषिदत्ता प्रसव से पहले ही शीलायुधके घरपर न पहुँच गई होती - खासकर ऐसी हालत मे जव कि उसने शीलायुध-द्वारा भोगे जानेका हाल अपने माता-पिता से भी उसी दिन कह दिया था। साथ ही, समालोचकजीके शब्दोमे ( मूलग्रन्थके शब्दोमे नही ) यह भी कह दिया था कि "मैं एकान्तमे राजा शीलायुधकी पत्नी हो चुकीं हूँ ।" ऐसी दशामे तो जितना भी शीघ्र बनता वे प्रकट रूपसे उसका बाकायदा ( नियमानुसार ) विवाह शीलायुधके साथ कर देते और उसके
१ यह श्री हेमचन्द्र और श्रीधरसेनाचार्योंका वाक्य है । मेदिनी - कोशमे भी 'केलिकलह' और 'प्रणय' दोनों अर्थ दिये हैं ।