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युगवीर-निवन्धावली स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि ऋषिदत्ता और शीलायुधने विवाह न करके व्यभिचार किया था। हरिवशपुराणके उक्त चारो पद्योमे शीलायुधके आश्रममे जाने और भोग करने तकका पूरा वर्णन है। परन्तु उसमे कही भी पति-पत्नीके सवध-विषयक किसी ठहराव, सकल्प, प्रतिज्ञा या विवाहका कोई उल्लेख नही है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि इन दोनोका गधर्व-विवाह हुआ था ? समालोचकजी, कथाका पूर्णाश ( ? ) देते हुए लिखते हैं :
"चूंकि राजपुत्र भी तरुण तथा रूपवान था और कन्या भी सुन्दरी व लावण्यवती थी। इनका आपसमे एक दूसरेपर विश्वास हो गया। ( पति-पत्नी बननेकी वार्ता हो गई ) जो कि गन्धर्वविवाहसे भली-भॉति घटित होता है। और इन्होने परस्परमे काम-क्रीडा की।"
___ मालूम होता है यह आपने उक्त ३८ वे और ३६ वें पद्योका पूर्णाश नही किन्तु साराश दिया है और इसमें चिरपालित मर्यादाको तोडनेकी वात आप कतई छिपा गये । अथवा यो कहिये कि, कथाका उपयुक्त साराश देनेपर भी, कथाके अशको छिपानेका जो इलजाम आपने लेखकपर लगाया था उसके स्वय मुलजिम और मुजरिम (अपराधी) वन गये । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि ३८ वे पद्यमे आए हए "अतिविधमत" पदका अर्थ आपने 'विश्वास हो गया' समझा उसे ही पति-पत्नी बननेकी वार्ता होना मान लिया । और फिर उसीको गधर्वविवाहमे घटित कर लिया !! वाह । क्या ही अच्छा आसान नुसखा आपने निकाला ! कुछ भी करना धरना न पडे और मुफ्तमे पाठकोको गधर्व-विवाहका पाठ पढ़ा दिया जाय ।। महाराज ! इस प्रकारकी कपट-कलासे कोई नतीजा नही है।