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युगवीर-निवन्धावली 'अयोनिसम्भव' कहलाता था । म्लेच्छोके त्रास अथवा दुर्भिक्षादि किसी भी कारणसे यदि किसीके सत्कुलमे कोई वट्टा लग जाता था-दोप आ जाता था तो राजा अथवा पचो आदिकी सम्मतिसे उसकी कुल-शुद्धि हो सकती थी और उस कुलके व्यक्ति तव उपनयन ( यज्ञोपवीन ) सस्कारके योग्य समझे जाते थे। इस कुल-शुद्धिका विधान भी आदिपुराणमे पाया जाता है । यथा -
कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदूपणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलं ॥१६८।। नदाऽत्योपनयाईत्वं पुत्रपौत्रादिसंतती। न निषिद्ध हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६९।।
___ -४०वॉ सर्ग। शुद्धिका यह उपदेश भी भरत चक्रवर्तीका दिया हुआ आदिपुराणमें बतलाया गया है और इससे दस्सो तथा हिन्दूमे मुसलमान बने हुए मनुष्योकी शुद्धिका खासा अधिकार पाया जाता है। ऐसी हालतमे समालोचकजी भरत महाराजके अपमान और कलककी वातका क्या खयाल करते हैं, वे उनके उदार विचारोको नही पहुँच सकते, उन्हे अपनी ही संभाल करनी चाहिये । जिसे वे अपमान और दूपण ( कलक) की बात समझते हैं वह भरतजीके लिये अभिमान और भूपणकी वात थी। वे समर्थ थे, योजक थे, उनमे योजनाशक्ति थी और अपनी उस शक्तिके अनुसार वे प्राय किसी भी मनुष्यको अयोग्य नही समझते थे-सभी भव्यपुरुषोको योग्यतामे परिणत करने अथवा १. अयोनिसमवं दिव्यज्ञानगर्मसमुन्नव । सोऽधिगम्य पर जन्म तदा सज्जातिभाग्मवेत् ॥९८॥
-आदिपुराण, पर्व ३९वां ।