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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
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अब समन्तभद्रको यह चिन्ता हुई कि दिगम्बर मुनिवेषको यदि छोड़ा जाय तो फिर कौनसा वेष धारण किया जाय, और वह वेष जैन हो या अजैन। अपने मुनिवेषको छोड़नेका खयाल आते ही उन्हें फिर दुःख होने लगा और वे सोचने लगे-" जिस दूसरे वेषको मैं भाज तक विकृत और अप्राकृतिक वेष समझता आरहा हूँ उसे मैं कैसे धारण करें ! क्या उसीको अब मुझे धारण करना होगा ! क्या गुरुजीकी ऐसी ही आज्ञा है ? हौं, ऐसी ही आज्ञा है। उन्होंने स्पष्ट कहा है ' यही मेरी आज्ञा है,'-' चाहे जिस वेषको धारण कर लो, रोगके उपशांत होने पर फिर जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना' तब तो इसे अलंध्य शक्ति भवितव्यता कहना चाहिये । यह ठीक है कि मैं वेष (लिंग) को ही सब कुछ नहीं समझता-उसीको मुक्तिका एक मात्र कारण नहीं जानता-वह देहाश्रित है और देह ही इस आत्माका संसार है; इस लिये मुझ मुमुक्षुका-संसार बंधनोंसे छूटनेके इच्छुककाकिसी वेषमें एकान्त आग्रह नहीं हो सकता* ; फिर भी मैं वेषके विकृत और भविकृत ऐसे दो भेद जरूर मानता हूँ, और अपने लिये अविकृत वेषमें रहना ही अधिक अच्छा समझता है । इसीसे, यद्यपि,
-...ततस्तसिद्धयर्थ परमकरणो प्रन्यमुभयं।
भवानेवास्याक्षीमच विकृतवेषोपधिरतः ॥ स्वयंभूः। ___ * श्रीपूज्यपाद के समाधितंत्रमें भी वेषविषयमें ऐसा ही भाव प्रतिपादित किया गया है; यथा
लिंग देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः ।
न मुच्यन्ते भवात्तस्माते ये लिंगकृताग्रहाः ॥ ७॥ अर्थात्-लिंग ( जटाधारण नमत्वादि ) देहाश्रित है और देह ही आत्माका संसार है, इस लिये जो लोग लिंग ( वेष) का ही एकान्त भाग्रह रखते हैंउसीको मुफिका कारण समझते हैं-वे संसारबंधनसे नहीं छूटते।