________________
८८
स्वामी समंतभद्र। योगबलसे मालूम किया कि समंतभद्र अल्पायु नहीं है, उसके द्वारा धर्म तथा शासनके उद्धारका महान् कार्य होनेको है इस दृष्टि से वह सल्लेखनाका पात्र नहीं; यदि उसे सलेखनाकी इजाजत दी गई तो वह अकालहीमें कालके गालमें चला जायगा और उससे श्रीवीरभगवानके शासन कार्यको बहुत बड़ी हानि पहुँचेगी; साथ ही, लोकका भी बड़ा अहित होगा। यह सब सोचकर गुरुजीने, समंतभद्रकी प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए, उन्हें बड़े ही प्रेमके साथ समझाकर कहा "वत्स, अभी तुम्हारी सल्लेखनाका समय नहीं आया, तुम्हारे द्वारा शासनकार्यके उद्धारकी मुझे बड़ी आशा है, निश्चय ही तुम धर्मका उद्धार और प्रचार करोगे, ऐसा मेरा अन्तःकरण कहता है; लोकको भी इस समय तुम्हारी बड़ी जरूरत है, इस लिये मेरी यह खास इच्छा है और यही मेरी आज्ञा है कि तुम जहाँपर और जिस वेषमें रहकर रोगोपशमनके योग्य तृप्तिपर्यंत भोजन प्राप्त कर सको वहीं पर खुशीसे चले जाओ और उसी वेषको धारण कर लो, रोगके उपशांत होने पर फिरसे जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना और अपने सब कामोंको सँभाल लेना। मुझे तुम्हारी श्रद्धा और गुणज्ञतापर पूरा विश्वास है, इसी लिये मुझे यह कहनेमें जरा भी संकोच नहीं होता कि तुम चाहे जहाँ जा सकते हो
और चाहे जिस वेषको धारण कर सकते हो; मैं खुशीसे तुम्हें ऐसा करनेकी इजाजत देता हूँ।"
गुरुजीके इन मधुर तथा सारगर्भित वचनोंको सुनकर और अपने मन्तःकरणकी उस आवाजको स्मरण करके समंतभद्रका यह निश्चय हो गया कि इसीमें जरूर कुछ हित है, इस लिये आपने अपने सल्लेखनाके विचारको छोड़ दिया और गुरुजीकी आज्ञाको शिरोधारण कर आप उनके पाससे चल दिये।