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________________ मुनि-जीवन और मापत्काल! उसकी कुछ पर्वाह नहीं की । वे स्वेच्छापूर्वक धारण किये हुए उपवासों तथा अनशनादिक तपोंके अवसर पर जिस प्रकार क्षुधापरीषहको सहा करते थे उसी प्रकार उन्होंने इस अवसर पर भी पूर्व अभ्यासके बल पर, उसे सह लिया-परंतु इस क्षुधा और उस क्षुधामें बड़ा अन्तर था; वे इस बढ़ती हुई क्षुधाके कारण, कुछ ही दिन बाद, असह्य वेद. नाका अनुभव करने लगे; पहले भोजनसे घंटोंके बाद नियत समय पर भूखका कुछ उदय होता था और उस समय उपयोगके दूसरी ओर लगे रहने आदिके कारण यदि भोजन नहीं किया जाता था तो वह भूख मर जाती थी और फिर घंटों तक उसका पता नहीं रहता था; परंतु अब भोजनको किये हुए देर नहीं होती थी कि क्षुधा फिरसे आ धमकती थी और भोजनके न मिलने पर जठराग्नि अपने आसपासके रक्त मांसको ही खींच खींचकर भस्म करना प्रारंभ कर देती थी । समन्तभद्रको इससे बड़ी वेदना होती थी, क्षुधाकी समान दूसरी शरीरवेदना है भी नहीं; कहा भी गया है-- "नरे क्षीणकफे पित्तं कुपितं माहतानुगम् । स्वोमणा पावकस्थाने बहमनेः प्रयच्छति ॥ तथा लब्धबलो देहे विस्क्षे सानिलोऽनलः । परिभूय पचायचं तैदण्यादाशु मुहुर्मुहुः ॥ पका सततं धातून शोणितादीन्पचयपि। ततो दौर्बल्यमातंकान् मृत्यु चोपनयारं ॥ भुक्तेऽसे लमते शांति जीणमाने प्रताम्यति । तुदस्वेददाहमूछो स्युम्योधयोऽस्यनिसंभवाः ॥ "तमेस्यानिं गुरुस्निग्धशीतमधुरविज्वलैः । भापाननयेच्छान्ति वीसममिमिवाम्बुभिः ॥" . -ति चरकः ।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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