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स्वामी समन्तभद्र।
नामका एक महारोग उत्पन्न हो गया । इस रोगकी उत्पत्तिसे यह स्पष्ट है कि समंतभद्रके शरीरमें उस समय कफ क्षीण हो गया था और वायु तथा पित्त दोनों बढ़ गये थे; क्योंकि कफके क्षीण होने पर जब पित्त, वायुके साथ बढ़कर कुपित हो जाता है तब वह अपनी गरमी और तेजीसे जठराग्निको अत्यंत प्रदीप्त, बलाढ्य और तीक्ष्ण कर देता ह और वह अग्नि अपनी तीक्ष्णतासे विरूक्ष शरीरमें पड़े हुए भोजनका तिरस्कार करती हुई, उसे क्षणमात्रमें भस्म कर देती है। जठराग्निकी इस अत्यंत तीक्ष्णावस्थाको ही ' भस्मक' रोग कहते हैं। यह रोग उपेक्षा किये जाने पर अर्थात् , गुरु, स्निग्ध, शीतल, मधुर और श्लेष्मल अन्नपानका यथेष्ट परिमाणमें अथवा तृप्तिपर्यंत सेवन न करने पर-शरीरके रक्तमांसादि धातुओंको भी भस्म कर देता है, महादौर्बल्य उत्पन्न कर देता है, तृषा, स्वेद, दाह तथा मूर्छादिक अनेक उपद्रव खड़े कर देता है और अन्तमें रोगीको मृत्युमुखमें ही स्थापित करके छोड़ता है + । इस रोगके आक्रमण पर समन्तभद्रने शुरूशुरूमें _* ब्रह्मनेमिदत्त भी अपने ‘आराधनाकथाकोष ' में ऐसा ही सूचित करते हैं। यथा
दुर्द्धरानेकचारित्ररत्नरत्नाकरो महान् । यावदास्ते सुखं धीरस्तावत्तत्कायकेऽभवत् ॥ असद्वेषमहाकर्मोदयार्दुःखदायकः । तीप्रकष्टप्रदः कष्टं भस्मकव्याधिसंज्ञकः ॥
--समन्तभद्रकथा, पद्य नं. ४,५। + कटादिरूक्षामभुजा नराणां क्षीणे कफे मारुतपित्तवृद्धौ।
अतिप्रवृतः पवनान्वितोऽनिर्भुक्तं क्षणामस्मकरोति यस्मात् । तस्मादसौ भस्मकसंज्ञकोऽभूदुपेक्षितोऽयं पचते च धातून् ।
-इति भावप्रकाशः।