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भावी तीर्थकरत्व।
है * । इस लिये प्रयोजनीय पदार्थों के सम्बंधमें आपका ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था, इसमें जरा भी संदेह नहीं है, और इसका अनुभव ऊपरके कितने ही अवतरणों तथा समंतभद्रके ग्रंथोंसे बहुत कुछ हो जाता है। यही वजह है कि श्रीजिनसेनाचार्यने आपके वचनोंको केवली भगवान महावीरके वचनोंके तुल्य प्रकाशमान लिखा और दूसरे भी कितने ही प्रधान प्रधान आचार्यों तथा विद्वानोंने आपकी विद्या और वाणीकी प्रशंसामें खुला गान किया ह + ।
यहाँ तकके इस संपूर्ण परिचयसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है और इसमें जरा भी संदेह नहीं रहता कि समन्तभद्र एक बहुत ही बड़े महात्मा थे, समर्थ विद्वान् थे, प्रभावशाली आचार्य थे, महा मुनिराज थे, स्याद्वाद विद्याके नायक थे, एकांत पक्षके निर्मूलक थे, अबाधितशक्ति थे, 'सातिशय योगी' थे, सातिशय वादी थे, सातिशय वाग्मी थे, श्रेष्ठकवि थे, उत्तम गमक थे, सद्गुणों की मूर्ति थे, प्रशांत थे, गंभीर थे, भद्रप्रयोजन और सदुद्देश्यके धारक थे, हितमितभाषी थे, लोकहितैषी थे, विश्वप्रेमी थे, परहितनिरत थे, मुनिजनोंसे वंद्य थे, बड़े बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंसे स्तुत्य थे और जैन शासनके अनुपम घोतक थे, प्रभावक थे और प्रसारक थे ।
* यथा-स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्स्वन्यतमं भवेत् ॥१०५॥
-आप्तमीमांसा। + श्वेताम्बर साधु मुनिश्री जिनविजयजी कुछ थोड़ेसे प्रशंसा वाक्यों के आधार पर ही लिखते हैं-" इतना गौरव शायद ही अन्य किसी आचार्यका किया गया हो।"-जैन सा० सं०१।