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स्वामी समंतभद्र।
फटकती थी। वे सर्वथा एकान्तवादके सख्त विरोधी थे और उसे वस्तुतत्त्व नहीं मानते थे । उन्होंने जिन खास कारणोंसे अहंतदेवको अपनी स्तुतिके योग्य समझा और उन्हें अपनी स्तुतिका विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा, एकान्त दृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि भी एक कारण है । अर्हन्त देवने अपने न्यायवाणोंसे एकान्त दृष्टिका निषेध किया है अथवा उसके प्रतिषेधको सिद्ध किया है और मोहरूपी शत्रको नष्ट करके वे कैवल्य विभूतिके सम्राट बने हैं, इसी लिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके कहते हैं कि आप मेरी स्तुतिके योग्य हैं—पात्र है । यथाएकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धियायेषुभिर्मोहरिपुं निरस्य । असि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट्, ततस्त्वमर्हसि मे स्तवार्हः ५५
-स्वयंभूस्तोत्र । इससे समंतभद्रकी साफ तौरपर परीक्षाप्रधानता पाई जाती है और साथ ही यह मालूम होता है ।के १ एकान्तदृष्टिका प्रतिषेध करना और २ मोहशत्रका नाश करके कैवल्य विभूतिका सम्राट् होना ये दो उनके जीवनके खास उद्देश्य थे। समंतभद्र अपने इन उद्देश्योंको पूरा करने में बहुत कुछ सफल हुए हैं। यद्यपि, वे अपने इस जन्ममें कैवल्य विभूतिके सम्राट नहीं हो सके परंतु उन्होंने वैसा होनेके लिये प्राय: संपूर्ण योग्यताओंका संपादन कर लिया है यह कुछ कम सफलता नहीं है
और इसी लिये वे आगामीको उस विभूतिके सम्राट होंगे-तीर्थकर होंगे-जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है। केवलज्ञान न होने पर भी, समंतभद्र उस स्याद्वादविद्याकी अनुपम विभूतिसे विभूषित थे जिसे केवलज्ञानकी तरह सर्व तत्त्वोंकी प्रकाशित करनेवाली लिखा है और जिसमें तथा केवलज्ञानमें साक्षात्-असाक्षात्का ही भेद माना गया