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स्वामी समंतभद्र। तभद्रकी वचनप्रवृत्ति, परिणति और स्याद्वादविद्याको पुनरुज्जीवित करने आदिके विषयमें ऊपर जो कुछ कहा गया है अथवा अनुमान किया गया है वह सब प्रायः ठीक ही है।
नित्यायेकान्तगर्तप्रपतन विवशान्प्राणिनोज्नर्थसार्थादुद्धतुं नेतुमुचैः पदममलमलं मंगलानामलंध्यं । स्याद्वादन्यायवर्त्म प्रथयदवितथार्थ वचःस्वामिनोदः, प्रेक्षावत्वात्प्रवृत्तं जयतु विघटिताशेषमिथ्याप्रवादं ॥
-अष्टसहस्री। इस पद्य, विक्रमकी प्रायः ९ वीं शताब्दीके दिग्गज तार्किक विद्वान्, श्रीविद्यानंद आचार्य, स्वामी समंतभद्रके वचनसमूहका जयघोष करते हुए, लिखते है कि स्वामीजीके वचन नित्यादि एकान्त गोंमें पड़े हुए प्राणियोंको अनर्थसमूहसे निकालकर उस उच्च पदको प्राप्त करानेके लिये समर्थ हैं जो उत्कृष्ट मंगलात्मक तथा निर्दोष है, स्याद्वादन्यायके मार्गको प्रथित करनेवाले हैं, सत्यार्थ हैं, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुए हैं अथवा प्रेक्षावान्-समीक्ष्यकारी-आचार्य महोदयके द्वारा
१ वस्तु सर्वथा नित्य ही है, कूटस्थवत् एक रूपतासे रहती है-इस प्रकारकी मान्यताको 'नित्यैकान्त' कहते है और उसे सर्वथा क्षणिक मानना--क्षणक्षणमें उसका निरन्वयविनाश स्वीकार करना-'क्षणिकैकान्त' वाद कहलाता है। 'देवागम' में इन दोनों एकान्तवादोंकी स्थिति और उससे होनेवाले अनर्थोको बहुत कुछ स्पष्ट करके बतलाया गया है।
२ यह स्वामी समन्तभद्रका विशेषण है । युक्त्यनुशासनकी टीकाके निम्न पद्यमें भी श्रीविद्यानंदाचार्य ने आपको परीक्षेक्षण' (परीक्षादृष्टि ) विशेषण के साथ स्मरण किया है और इस तरह पर आपकी परीक्षाप्रधानताको सूचित किया है
श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुमिस्तत्वं समीक्ष्याखिलं । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगै-- बिचानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः ॥