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स्वामी समंतभद्र।
उल्लेख मिलता है और उसे 'नरसेन' भी लिखा है। दोनों सप्रदायके ग्रंथोंमें नरवाहनका राज्यकाल ४० वर्षका बतलाया है परन्तु उसके आरंम तथा समाप्तिके समयोंमें परस्पर कुछ मतभेद है । दिगम्बर ग्रंथोंके अनुसार नरवाहनका राज्यकाल वीरनिर्वाणसे ४४५ (६०+१५५+ ४०+३० +६०+१००) वर्षके बाद प्रारंभ होकर वीर नि० सं० ४८५ पर समाप्त होता है, और श्वेताम्बर ग्रंथोंके कथनसे (नगेन्द्रनाथ वसुके उल्लेखानुसार) वह वीरनिर्वाणसे ४१३ (६०+१५५+ १०८+३०+ ६०) वर्षके बाद प्रारंभ और वीर नि० सं० ४५३ पर समाप्त होता हैं। इस तरह पर दोनोंमें ३२ वर्षका कुल अन्तर है। परन्तु इस अन्तरको रहने दीजिये और यह देखिये कि, यदि सचमुच ही इसी राजा नरवाहनने भूतबलि मुनि होकर 'षट्खण्डागम' नामक सिद्धान्तग्रंथकी रचना की है और उसका यह समय ( दोनों से कोई एक) ठीक है तो हमें कहना होगा कि उक्त सिद्धान्त ग्रंथकी रचना उस वक्त हुई है जब कि एकादशांगश्रुतके-ग्यारह अंगोंके-पाठी महामुनि मौजूद थे* और जिनकी उपस्थितिमें 'कर्मप्राभृत'श्रुतके व्युच्छेदकी कोई आशंका नहीं थी। ऐसी हालतमें, उक्त आशंकाको लेकर, 'षट्खण्डागम' श्रुतके अवतारकी जो कथा इन्द्रनन्दी आचार्यने अपने 'श्रुतावतार में लिखी है वह बहुत कुछ कल्पित ठहरती है। उनके कथनानुसार भूतबलि आचार्य वीरनिर्वाण सं० ६८३ से भी कितने ही वर्ष बाद हुए हैं और इन दोनों समयोंमें प्रायः २०० वर्षका भारी अन्तर है। अतः विबुध श्रीधरके उक्त कथनकी खास तौरपर जाँच होनेकी जरूरत है और विद्वानोंको इस नरवा
* इन एकादशांगपाठी महामुनियोंका अस्तित्व, त्रिलोकप्राप्ति आदि प्राचीन प्रन्योंके अनुसार, वीरनिर्वाणसे ५६५ वर्षपर्यंत रहा है।