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ग्रन्थ-परिचय ।
या वह पहले ही रचा जा चुका था और बादको महाभाष्यमें शामिल किया गया इसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका। फिर भी इतना तो स्पष्ट है और इस कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि 'देवागम (आप्तमीमांसा )' एक बिलकुल ही स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमें इतना अधिक प्रसिद्ध रहा है कि महाभाष्यको समंतभद्रकी कृति प्रकट करते हुए भी उसके साथमें कभी कभी देवागमका भी नाम एक पृथक् कृति के रूपमें देना जरूरी समझा गया है और इस तरह पर 'देवागम' की प्रधानता और स्वतंत्रताको उद्घोषित करनेके साथ साथ यह सूचित किया गया है कि देवागमके परिचयके लिये गंधहस्ति महाभाष्यका नामोल्लेख पर्याप्त नहीं है-उसके नाम परसे ही देवागमका बोध नहीं होता । साथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि यदि 'देवागम' गंधहस्ति महाभाष्यका एक प्रकरण है तो ‘युक्त्यनुशासन' ग्रंथ भी उसके अनन्तरका एक प्रकरण होना चाहिये; क्योंकि युक्त्यनुशासनटीकाके प्रथम प्रस्तावनावाक्यद्वारा श्रीविद्यानंद आचार्य ऐसा सूचित करते हैं कि आप्तमीमांसा-द्वारा आप्तकी परीक्षा हो जानेके अनन्तर यह ग्रंथ रचा गया है, और ग्रंथके प्रथम पधमें आये हुए 'अर्थ' शब्द
१ टीकाका प्रथम प्रस्तावनावाक्य इस प्रकार है
" श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमतार्हतान्त्यतीर्थकरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षको भवन्तः इति ते पृष्ठा इव प्राहु:-।"
२ युक्त्यनुशासनका प्रथम पद्य इस प्रकार है" कीर्त्या महत्या भुवि वईमानं स्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरस्वं । निनीषवः स्मो वयमच वीरं विशीर्णदोषाशयपाशबन्धं ॥" । ३ अद्य अस्मिन्काले परीक्षावसानसमये (-इति विद्यानंदः )
अर्थात्--इस समय-परीक्षाकी समाप्तिके अवसरपर हम आपको-वीरवर्द्धमानको-अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते हैं-आपकी स्तुति करना चाहते हैं।