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प्रन्य-परिचय ।
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यदि ग्रंथकी उस — उत्थानिका' से लिया जाय जो कभी कभी ग्रंथकी रचनाका सम्बन्धादिक बतलानेके लिये शुरूमें लिखी जाती है, तो उससे भी उक्त आशयमें कोई बाधा नहीं आती; बल्कि 'भाष्यकार' को 'शास्त्रकार' कहा गया है यह और स्पष्ट हो जाता है; क्योंकि मूल तत्त्वार्थसूत्रमें वैसी कोई उत्थानिका नहीं है, वह या तो मंगलाचरणके बाद 'सर्वार्थसिद्धि' में पाई जाती है और या महाभाष्यमें होगी। सर्वार्थसिद्धि टीकाके कर्ता भी कथंचित् उस 'शास्त्रकार' शब्दके वाच्य हो सकते हैं। रही भाष्यकारको शास्त्रकार कहनेकी बात, सो इसमें कोई विरोध मालूम नहीं होता-तत्त्वार्थशास्त्रका अर्थ होनेसे जब उसके वार्तिक भाष्य या व्याख्यानको भी 'शास्त्र' कहा जाता * है तब उन वार्तिक-भाष्यादिके रचयिता स्वयं 'शास्त्रकार' सिद्ध होते हैं, उसमें कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। __ और यदि उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रद्वारा तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रका प्रोत्थान होनेसे 'प्रोत्थान' शब्दका वाच्य वहाँ उक्त तत्त्वार्थसूत्र ही माना जाय तो फिर उससे पहले 'तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधि' का वह वाच्य नहीं रहेगा, उसका वाच्य कोई ग्रंथ विशेष न होकर सामान्य रूपसे तत्त्वार्थमहोदधि, द्वादशांगश्रुत या कोई अंग-पूर्व ठहरेगा, और तब अष्टसहस्री तथा आप्तपरीक्षाके कथनोंका वही नतीजा निकलेगा जो ऊपर निकाला गया है—गंधहस्ति महाभाष्यकी रचनाका लाजिमी नतीजा उनसे नहीं निकल सकेगा।
* जैसा कि ' श्लोकवार्तिक में विद्यानंदाचार्यके निम्न वाक्योंसे भी प्रकट है"प्रसिद्ध च तस्वार्थस्य शासवे तद्वार्तिकस्य शास्त्रत्वं सिद्धमेव तदर्थत्वात् । .........तदनेन तम्बाख्यानस्य शामस्वं निवेदितम् ॥"